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________________ مغږي ® जैन-तत्त्व प्रकाश अधिक लाभ समझ कर, उसे प्राप्त करने के लिए चोर को चोरी करने का उपाय पतलाते हैं, उसे खान-पान, शस्त्र-मकान आदि आवश्यक साधन देते हैं। चोर से कहते हैं-डरो मत । बेधड़क होकर चोरी कसे। हम तुम्हारा सब माल ले लेंगे। कभी किसी प्रकार का संकट आ पड़ेगा तो तुम्हें यथोचित सभी प्रकार की सहायता देंगे । इत्यादि प्रकार से चोर को उकसाते हैं। ऐसे लोग भी चोर कहलाते हैं। वे भी राजदण्ड आदि के पात्र होते हैं। श्रावक ऐसे कृत्यों को अनुचित समझ कर उनका परित्याग कर देते हैं। (३) विरुद्धरजाइकम्मे-अर्थात् राजा या राज्य के विरुद्ध कार्य करे तो अतिचार लगता है । राजा राष्ट्र के कल्याण के लिए या प्रजा के सुख के लिए जो नियम (कानून) बनाता है, उनका पालन करना प्रजा का कर्तव्य है। अगर कोई ऐसे नियमों का उल्लंघन करता है तो उसे तीसरे व्रत का अतिचार लगता है। उदाहरणार्थ-राजा ने प्रजा का अहित समझ कर मदिरा आदि किसी वस्तु का व्यापार करने की मनाई कर दी, अथवा किसी वस्तु को आवश्यकता से अधिक संग्रह करने का निषेध कर दिया तथापि लोभ-लालच से प्रेरित होकर ऐसा व्यापार करना या संग्रह करना चोरी का अतिचार कहलाएगा। इसी प्रकार दो राज्यों की संधि में रह कर, राज्याज्ञा के विरुद्ध इधर की वस्तु ले जाकर उधर बेचना, कर की चोरी करना, राजा के पुत्र, मित्र, सामन्त, चारासी या किसी भी अन्य कर्मचारी को फुसला कर, रिश्वत देकर राज्याज्ञा के विरुद्ध कार्य करना अथवा कराना, उनमें आपस में झगड़ा उत्पन्न कर देना आदि भी अतिचार है। ऐसा करने वाला - जिस जगह जो वस्तु चाहिए, उस जगह वह वस्तु पहुँचा देना (१५) थक कर आये चोर की तैल आदि से मालिश करना, उष्ण जल आदि से स्नान कराना, गुड़ फिटकड़ी प्रादि खिलाना, अग्नि से तपाना, घाव पर मरहमपट्टी करना आदि (१६) चोर को भोजन प्रादि बनाने के लिए अमि आदि सामग्री देना (१७) चुराकर लाये हुए धन, वस्त्र, आभूषण, गो, अश्व आदि वस्तुओं को अपने घर में बंदोवस्त के साथ रखना (१८) चोर को सब प्रकार की सुविधा देना। इस प्रकार चोरी के माल में हिस्सा बंटाने के लिए बोर की सहायता करने वाला रही कहलाता है। कानून के अनुसार वह भी बोर के सम्मान सजा का भागी होता है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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