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________________ ७०३ * जैन-तत्व प्रकाश हो जाता है। अतएव जो असत्य से बचना चाहता है, उसे क्रोध से बचते रहने का सदा प्रयत्न करना चाहिए । (२) अभिमान - मनुष्य अभिमान के कारण भी असत्य बोल देता है। जब किसी के हृदय में अभिमान प्रचंड होता है तो वह कहता है- मेरे समान इस संसार में कोई 'भूतो न भविष्यति ।' अर्थात् न-कोई हुआ है, न होगा । (३) कपट - मायाचार या दगाबाजी तो झूठ का मूल ही हैं । (४) लोभ - लोभ के अधीन होकर व्यापारी, ब्राह्मण और यहाँ तक कि नामधारी साधु भी झूठ बोलने लग जाते हैं । (५-६) राग-द्वेष - यह हैं तो दो दुर्गुण, मगर दोनों एक ही सिक्के कैदी बाजू हैं । जहाँ राग है वहाँ द्वेष अवश्य रहता है। किसी एक वस्तु पर जब राग उत्पन्न होता है तो उससे भिन्न या उसकी विरोधी वस्तु पर देव भा हो जाता है। यह दोनों दोष जीवन में व्यापक रूप से रहते हैं । बच्चे को खिलाते हुए राग के कारण असत्य भाषण किया जाता है और द्वेष के वश होकर शत्रु पर झूठा कलंक चढ़ाने में संकोच नहीं किया जाता । (७) हास्य - हँसी-मजाक में, गप्प मारते हुए झूठ बोला जाता है । (८) भय - डर के कारण राजा के, स्वामी के या अधिकारी के समक्ष आपने अकृत्य को छिपाने के लिए झूठ बोला जाता है । (E) लज्जा - लाज शर्म के वश होकर अपने कुकर्म को छिपाने के लिए झूठ बोला जाता है। (१०) कीड़ा की के वश होकर खो आदि के सम्मने झूठ बोला (११) - हर्ष --हर्षोलाह के कारण उत्सवः आदि के प्रसंगों पर प्रसस्य
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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