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________________ ® सागारधर्म-श्रावकाचार श्रमणोपासक या श्रावक के पद की प्राप्ति दो प्रकार से होती है। निश्चय में तो दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों का, अनन्तानुबंधी चौकड़ी बिना ही, स्वभाव से ही साधु-साध्वी के संरक्षण में तत्पर रहते हैं। ऐसे श्रावक माता-पिता के समान कहलाते हैं। (२) भाई के समान-यों तो भाई परस्पर में विशेष रूप से प्रेम नहीं दिखलाते किन्त जब एक भाई पर कोई कठिन प्रसंग आ पडता हैं. कोई विपत्ति आ जाती है. तब अपना सर्वस्व अर्पण करके भी एक दूसरे की सहायता करते हैं । इसी प्रकार कितनेक श्रावक, साधु-साध्वी पर विशेष प्रेम नहीं रखते हैं, किन्तु आपत्ति आने पर अपना सर्वस्व अर्पण करके भी उनकी सहायता करते हैं। उस समय वे हृदय के सच्चे प्रेम से और वात्सल्य बुद्धि से भक्ति करते हैं। (३) मित्र के समान जैसे मित्र परस्पर एक दूसरे का उपकार करते हैं । एक, दूसरे के काम आये तो दूसरा भी उसके काम आता हैं और आपत्ति आने पर वह उसकी सहायता करता है, इसी प्रकार कितनेक श्रावक, साधु से ज्ञान प्रादि गुण ग्रहण करते हैं और यह साधुजी मेरे उपकारी हैं, ऐसा समझ कर उन्हें आहार, वस्त्र, औषध आदि देकर यथोचित साता पहुँचाते हैं । और कदाचित् साधु पर किसी प्रकार की आपदा आ जाय तो यथाशक्ति सहायता कर के साता उपजाते हैं। (४) सौत के समान-जैसे सौतें आपस में एक दूसरी पर ईर्षा रखती हैं, निन्दा करती हैं, शाप देती है, पति से एक दूसरी की चुगली करती हैं, झूठा दोष लगाती हैं, मान भंग करने का प्रयत्न करती हैं उसी प्रकार कितनेक श्रावक, साधु पर ईर्षा करते हैं, साधु की निन्दा करते हैं, साधु का बुरा विचारते हैं, दूसरे के सामने अवर्णवाद बोलते हैं, मिथ्या दोषारोपण करते हैं। ऐसे श्रावक सौत (सपत्नी) के समान कहलाते हैं। इसके अतिरिक्त श्रमणोपासक दूसरी तरह से भी चार प्रकार के कहे गये हैं:'अदागसमाणे, पडागसमाणे, खाणुसमाणे, खरकंटसमाणे ।' अर्थात् चार के श्रावक होते हैं-(१) आदर्श (प्रारीसा-कॉच) के समान, काँच में जैसा रूप होता है वैसा ही दिखाई देता है, उसी प्रकार कितने ही श्रावक व्याख्यान आदि अषण करते समय जैसे उत्सर्ग-अपवाद आदि मार्ग की प्ररूपणा साधु करते है उसी प्रकार श्रद्धान करते है। निःशंक भाव से आगम-वाक्यों पर श्रद्धा रखते हैं। (२) पताका के समान-जिधर की हवा चलती है, पताका उधर ही फिर जाती है। इसी प्रकार कितने ही श्रावक जिनका उपदेश सुनते हैं, उन्हीं में मिल जाते हैं। यह अच्छा या वह अब्छा, इसे पकडू या उसे ? इस प्रकार उनका चित्त सदैव डॉवाडोल बना रहता है। वे सार-प्रसार का भेद नहीं समझते।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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