SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 701
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ v वर्गणाओं की निर्जरा रूप महान् फल को देने वाला है और सम्यक्त्व के बिना की हुई क्रिया मोक्षदायक न होने से निरर्थक कही है । ॐ सम्यक्त्व * इक समकित पाये बिना, तप जप किरिया फोक । जैसे शव सिनगारना, समझो कहे 'तिलोक' ॥ इसलिए धर्म के यथार्थ फल को चाहने वाले को प्रथम ही समकित अवश्य प्राप्त करना चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र के ३६ वें अध्ययन में कहा है: सम्म सणरता, अनियाण सुक्कलेस मोगाढा | इय जे मरंति जीवा, तेसिं सुलहा हवे बोही || अर्थात् — जो जीव मिथ्यात्व और राग-द्वेष के मल से रहित होता है, तथा क्लेश-रहित, शान्तिस्वरूप बन जाता है और जिनप्रणीत शास्त्रानुसार निदानरहित निर्मल करणी करने में तत्पर रहता है, वही स्वल्पसंसारी होता है । भव भव में उसके लिए बोधि सुलभ होती है और वह शीघ्र ही मोच प्राप्त कर लेता है। || चौथा प्रकरण समाप्त ॥
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy