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________________ * जैन-तस्व प्रकाश * ६०० [ (६) द्वीपायन (७) देव पुत्र और (८) नारद । क्षत्रिय जाति में सात तपस्वी हुए हैं: - (१) सिलाई (२) शशिहर (३) गग्गइ (४) मगइ (५) विदेही राजा (६) राम और (७) बलभद्र । इस प्रकार के ज्ञान के धारक और क्रिया के पालक तपस्वी आयु पूर्ण करके उत्कृष्ट दस सागरोपम की श्रायु वाले पाँचवें ब्रह्मलोक में देव होते हैं । (६) उक्त ग्राम आदि में फिरने वाले साधु, जो साधु के आचार का तो बराबर पालन करते हैं, किन्तु श्राचार्य, उपाध्याय, कुल, गुरुभ्राता, गण-सम्प्रदाय के साधु आदि गुणवन्तों के प्रत्यनीक (विरोधी) बनकर उनकी निन्दा करते हैं, उन पर द्वेष भाव धारण करते हैं; वे ऐसा करके सम्यक्त्व से भ्रष्ट होकर मिथ्यादृष्टि बन जाते हैं । वे आयु पूर्ण होने पर मनुष्यों में चाण्डाल के समान, किल्विषी नामक नीच देवयोनि में उत्पन्न होते हैं । उनमें उत्कृष्ट तेरह सागरोपम के आयुष्य वाले देव होते हैं । * बचा लेना तो धर्म है, मगर अपनी मर्यादा में रहते हुए ही बचाया जा सकता है। मर्यादा को भंग न करके बचाने में धर्म ही है। संन्यासियों की जो मर्यादा थी उसे उन्होंने भंग नहीं किया; एतता यह नहीं कहा जा सकता कि जहाँ मर्यादा भंग न होती हो वहाँ भी जीवरक्षा करना धर्म है । संन्यासियों को जीरक्षा प्राणाधिक प्यारी थी, पर माँसाहार के भंग करना योग्य नहीं समझकर वे संथारा लेकर देवलोक गये । पाठक जरा विचार करें कि प्राचार्य की या गुरु की निन्दा करना कितना भारी पाप है ! जिसके प्रभाव से शुद्ध संयम का पालन करने पर भी चाण्डाल जैसी नीच योनि प्राप्त होती है ! अतएव उपकारी महापुरुषों की निन्दा से अवश्य बचना चाहिए । पानी में रहकर सामायिक पतिक्रमण किस प्रकार कर सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जलचर जीव सामायिकादि व्रत का काल पूर्ण न हो जाय तब तक हलनचलन नहीं करते - निश्वल रहते हैं। इसी से उनका व्रत पल जाता है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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