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________________ ५६६ ] ® जैन-तत्त्व प्रकाश माता-पिता की भक्ति करने वाले हों और उनकी आज्ञा को उम्लंघन करने वाले न हों, अल्प तृष्णा वाले हों, अल्पारंभी हों, अल्पसावध वृत्ति से आजीविका करने वाले हों, वे आयु पूर्ण करके चौदह हजार वर्ष की आयु वाले बाण-व्यन्तर देव होते हैं। (४) उक्त ग्राम आदि में रहने वाली जो स्त्रियाँ अन्तःपुर (रनवास) में रहती हैं, विशेष काल पर्यन्त पति का संयोग न मिलने से, पति के विदेश गमन करने से, पति की मृत्यु होने से, पति की अनचाहती होने से, बालविधवा होने से; माता, पिता, भ्राता, पति, सास, ससुर, जाति आदि की लज्जा से या इनके बंदोबस्त से, मन में भोग करने की इच्छा करती हुई भी जो ब्रह्मचर्य का पालन करती हैं; स्नान, मर्दन, पुष्ष-माला आदि से शरीर का श्रृंगार नहीं करती, शरीर पर मैल एवं स्वेद धारण किये रहती है; दूध, दही, घृत, तेल, गुड़, मक्खन, मदिरा, मांस आदि बलकारक और उन्मादकारक आहार का त्याग करती हैं, अल्पारंभ-समारंभ से जो अपनी आजीविका करती है, तथा जिनने अपने पति के सिवाय अन्य पुरुष का सेवन नहीं किया है, ऐसी स्त्रियाँ मर कर ६४००० वर्ष की आयु पाले वाण-व्यन्तर देव हो जाती हैं। (५) उक्त ग्राम आदि में रहने वाले जो मनुष्य अन और पानी के सिवाय और किसी द्रव्य का उपभोग नहीं करते, अथवा जो-तीन, चार, पाँच यावत् ग्यारह द्रव्यों के सिवाय और कुछ नहीं भोगते, अथवा जो गौ की भक्ति करने वाले, देव का तथा वृद्ध का विनयं करने वाले, तप, व्रत का आचरण करने वाले, श्रावकधर्म के शास्त्रों का श्रवण करने वाले, दूध, दही, घृत, तेल, गुड, मदिरा, मांस को भोगने का त्याग करने वाले सिर्फ सरसों का तेल ही ग्रहण करने वाले होते हैं, वे ८४००० वर्ष की आयु वाले वाण-व्यन्तर देव हो जाते हैं। .. (६) उक्त प्राम आदि में रहने मले जो तपस्वी अपिहोवा करता है, सिर्फ एक बस्तरखते हैं, पृथ्वी शव करते हैं, अपने शास्त्रों के मन
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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