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* सम्यक्त्व *
तत्काल उन्हें उत्तर देते हैं कि-एक ही नगर श्रादि में प्रतिबंध होने और संयम के नष्ट होने की संभावना रहती है। इसीलिए मुनि ग्रामानुग्राम विहार किया करते हैं । ऐसा करने में कदाचित् नदी को पार करना अनिवार्य हो जाता है तब उसके लिए पश्चाचाप करते हुए ही वे नदी पार करते हैं । नदी में उतरने को धर्म कदापि नहीं समझते,बल्कि पाप ही मानते हैं। उसका प्रायश्चित्त भी करते हैं। किन्तु तुम धर्मार्थ हिंसा करके हर्ष मानते हो, उसे पाप नहीं समझते, इसलिए चिकने कर्म बाँधते हो । संसार के कामों के लिए की हुई हिंसा को तो तुम भी हिंसा मानते हो, मगर धर्म के लिए की हुई हिंसा को पाप नहीं मानते । इस धृष्टता का क्या वर्णन करें ? ग्रन्थकार तो यह कहते हैं:
अन्यस्थाने कृतं पापं, धर्मस्थाने प्रणश्यति ।
धर्मस्थाने कृतं पापं, वज्रलेपो भविष्यति ॥ अर्थात्-दूसरी जगह किये हुए पाप धर्मस्थान में जाकर धर्मक्रिया करने से नष्ट हो जाते हैं, किन्तु जो पाप धर्मस्थान में जाकर किया जाता है, उसकी निवृत्ति कहाँ होगी ? इस लिए जिस प्रकार साधु का नाम-वेश धारण करके अनाचार का सेवन करने से वज्र-कर्मों का बन्ध होता है, उसी प्रकार धर्मस्थान में की हुई हिंसा भी वज्र-कर्मबंध का कारण होती है। हँसते-हँसते जो कर्मबंध किये जाते हैं, वे कर्म फिर रोते-रोते भी छूटने कठिन हो जाते हैं। सुज्ञ पुरुष इस प्रकार उत्तर देकर अपनी आत्मा को और दूसरे धर्मात्माओं को पाखण्डियों के फंदे से बचा लेते हैं । सम्यग्दृष्टि की यह चार आस्थाएँ होती हैं।
दूसरा बोल–सम्यक्त्व के तीन लिंग
लिंग का अर्थ है चिह्न । जैसे उष्णता अग्नि का चिह्न है, उसी प्रकार सम्यक्त्व के निम्नलिखित तीन चिह्न हैं। इनसे सम्यक्त्व की पहिचान होती है: