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________________ ५८० ] * जैन-तत्व प्रकाश * व्यवहारसम्यक्त्व का लक्षण (छप्पय छन्द) छहों द्रव्य नव तत्व भेद जाको सब जाने, दोष अठारा रहित देव ताको परिमाने । संयम सहित सुसाधु होय निग्रन्थ निरागी, मति अविरोधी ग्रंथ ताहि माने पर त्यागी। केवलि-भाषित धर्म धर, गुणस्थान बूझै परम । भैया निहार व्यवहार यह, सम्यक्-लक्षण जिन धरम ॥ अर्थात्--जिनको (१) धर्मास्तिकाय (२) अधर्मास्तिकाय (३) आकाशास्तिकाय (४) काल (५) जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय, इन छह द्रव्यों का और (१) जीव (२) अजीव (३) पुण्य (४) पाप (५) आस्रव (६) संवर (७) निर्जरा (८) बंध और (६) मोक्ष, इन नौ तत्वों का ज्ञान हो, जो इन्हें द्रव्य गुण पर्याय आदि द्वारा यथार्थ रूप से जानते हैं और जो अठारह दोषों से रहित हो उन्हें देव माने, शुद्ध संयम के पालक निग्रन्थ साधु को गुरु माने, जिनेन्द्र भगवान् के मत से अविरोधी वचनों को शास्त्र माने, केवलज्ञानी के कहे हुए (दयामय) धर्म को धर्म माने तथा जो चौदह गुणस्थानों के मर्म का अच्छा ज्ञाता हो, उस तत्त्वश्रद्धानी को व्यवहार सम्यक्त्वी कहते हैं । सम्यक्त्व के ६७ बोल ( श्रद्धान चार) परमत्थसंथवो वा, सुदिनुपरमत्थसेवणा बावि । वावएणकुदंसणवज्जणा य सम्मत्तसद्दहणा ॥ -श्रीउत्तराभ्ययन
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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