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* जैन-तत्त्व प्रकाश
(५) श्री
में मनुष्य के शरीर से अलग हुई अशुचि के १४ स्थानों में जीवों की उत्पत्ति कही है, किन्तु कितने यूँक में तथा स्वेद (पसीने) में भी उन जीवों की उत्पत्ति कहते हैं । तो यह १५ वाँ और १६ वाँ स्थानमा विरुद्ध कहाँ से लाये ?
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(६) भगवतीत्र के १६ वें शतक के द्वितीय उद्देशक में कहा हैहे गौतम! राकेन्द्र उघाड़े मुँह बोले तो सावद्य भाषा और मुख पर वस्त्रादि रखकर बोले तो निरवद्य भाषा होती है। तो जो मुनि मुख पर मुखवस्त्रिका बांधे बिना बोलते हैं, उनके द्वारा कितनी ही बार उघाड़े मुख बोला जाता है, यह विणीय है । जो मुँह पर मुखपत्ति बाँधने का निषेध करते हैं, उन्हीं के माननीय ग्रन्थों में मुख पर मुखपत्ती बाँधने का विधान किया गया हैं । देखिए, नियुक्ति की १०६३ और १०६४ की चूर्णि में लिखा है किएक विलस्त और चार अंगुल की मुँहपत्ति में मुख के प्रमाण के बराबर डोरा डाल कर मुख पर मुहपत्ति बाँधनी चाहिए । (२) दूसरा प्रवचनसारोद्धार की ५२१ वीं गाथा में कहा है- मुख पर मुँहपत्ति आच्छादन करके बाँधनी चाहिए । (३) महानिशीथसूत्र में कहा है कि मुखत्रिका के बिना प्रतिक्रमण करे, वाचनाले अथवा दे, वंदना. स्वाध्याय आदि करे तो पुरिमड्ढ का प्रायश्चित
ता है । ( ४ ) योगशास्त्र वृत्ति पृ. २६१ में लिखा है कि हवा में उड़ने वाले जीवों तथा वायु काय के जीवों की उष्ण श्वास से होने वाली विराधना से बचने के लिए मुँहपति धारण की जाती है । (५) आचारदिनकर आदि ग्रंथों में मुँहपति बाँधने के अनेक प्रभाग मिलते हैं।* (६) श्री हेमचन्द्राचार्य की रचना के अनुसार उदयरत्व जी का सं० १७६३ में
* The Religions of world by John murdork L. L. D., Page 128:
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The yati has to lead a life of Continenc, He should wear a thin cloth over his mouth to prevent insects from flying into it.
अर्थात्--जॉन मर्डक एल-एल. डी. नामक पाश्चात्य विद्वान् ने ई० स० १६०२ में 'दुनिया के मत' नामक पुस्तक बनाई है। उसके पृ० १२८ पर छपा है - ब्रह्मचर्य का पालन करना और सूक्ष्म जीवों की रक्षा के लिए मुख पर वस्त्र धारण करना यति का धर्म है. 1.
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