SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 588
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४२ * जैन-तत्त्व प्रकाश * श्रावक की युक्ति काम कर गई । तिष्यगुप्त की श्रद्धा शुद्ध हो गई। उन्होंने सुमित्र श्रावक का उपकार माना। तब सुमित्र ने कहा-महाराज ! आपको मेरा वारंवार नमस्कार है । मुझ जैसे अल्पज्ञ श्रावक से आपने सीधी बात ग्रहण की, इसके लिए आप धन्यवाद के पात्र हैं। (३) आषाढाचार्य आपादाचार्यजी अल्पज्ञ शिष्यों को छोड़कर, आयु पूर्ण करके देवता हुए और फिर अपने मृतक शरीर में प्रवेश करके उन्होंने अपने शिष्यों को पढ़ाया । फिर शरीर त्याग कर स्वर्ग में जाते समय सारा भेद खोल दिया। इससे शिष्य शंकाशील हो गये । वे सोचने लगे-भरे ! इतने दिनों तक हम लोग अवती देव को नमस्कार श्रादि करते रहे ? कदाचित् अन्य साधुओं के शरीर में भी देवताओं का वास हो ? उन्होंने यह सोचकर दूसरे साधुओं के साथ वंदना आदि का व्यवहार करना त्याग दिया। यह तीसरे निव हुए। (४) रोहगुप्त-श्रीगुप्ताचार्य के शिष्य रोहगुप्त ने किसी प्रतिवादी के साथ वाद-विवाद किया। उस प्रतिवादी ने वादविवाद में जीवराशि और अजीवराशि इस प्रकार दो राशियों की स्थापना की। उस समय रोहगुप्त ने सूत के धागों पर बट चढ़ाकर उसके सामने रख दिया और पूछा-बोलो, यह कौन-सी राशि है ? अगर इसे जीव कहते हो तो ठीक नहीं, क्योंकि यह धागा है। और यदि अजीव कहते हो तो भी ठीक नहीं, क्योंकि यह बिना हिलाये ही हिलता है । यह सुनकर प्रतिवादी चुप रहा। तब रोहगुप्त ने 'जीवाजीव की तीसरी राशि स्थापित की और प्रतिवादी को पराजित किया। उसके बाद वे अपने गुरुजी के पास लौट कर आये और वादविवाद का सब वृत्तान्त सुनाने लगे। तब गुरुजी ने कहा-तुमने जिनधर्म के विरुद्ध तीन राशियों की स्थापना की है। इसके लिए 'मिच्छा मि दुक्कड' दो अर्थात प्रायश्चित्त कर लो.। मगर रोहगुप्त ने अभिमान के मारे अपना हठ नहीं छोड़ा। तब गुरुजी ने उसे अपने गच्छ से पृथक् कर दिया । यह चौथा निह्वव हुआ। (५) धनगुप्त प्राचार्य के शिष्य को एक बार नदी पार करनी पड़ी। पार करते समय पैरों में पानी की शीतलता का अनुभव हुआ और मस्तक
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy