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________________ ५४० ] ® जैन-तत्त्व प्रकाश है। इसी प्रकार अनेक जीव सुख के लिए दुःखप्रद कर्म करते हैं; किन्तु उसका परिणाम दुःख रूप ही होता है । इसके विरुद्ध सुज्ञानी जीव मोह की मन्दता के कारण दुःखप्रद कर्म का त्याग करते हैं और सुखी होते हैं। कितनेक नास्तिक मत वाले कहते हैं—तुम कृत कर्मानुसार ही सुखदुःख का प्राप्त होना कहते हो, किन्तु उन कर्मों का हमें भान क्यों नहीं होता है ? जैसे बाल्यावस्था में किये हुऐ कामों का हमें स्मरण होता है, तैसे ही पिछले जन्म के कृत कर्मों का स्मरण क्यों नहीं होता है ? ऐसे लोगों से पूछना चाहिए कि जब तुम गर्भाशय में थे तब तुम्हारी क्या दशा थी, इस बात का तुम्हें क्या स्मरण है ? वे उत्तर में 'नहीं' कहेंगे। इसी प्रकार निद्रित अवस्था में जागृत अवस्था का भान नहीं रहता और जैसा स्वम आता है वैसा ही बन जाते हैं । इस प्रकार भाइयो ! अपन क्षणान्तर में किये कर्मों का ही भान भूल जाते हैं, तो फिर परभव की बात का तो कहना ही क्या है ? वास्तव में अज्ञान की प्रबलता बड़ी जबर्दस्त होती है । इसलिए उक्त प्रकार के, दूसरों के कुहेतुओं और कुतर्कों में कदापि नहीं फंसना । सत्य कथन को स्वीकार करना और परभव है, ऐसा सत्य मानना। इस विषय में लेश मात्र भी संदह नहीं करना । सात निव प्रचीन काल में, जिनप्रणीत शास्त्रों से विपरीत प्ररूपणा करने वाले सात निह्नव हुए हैं। यथा-(१) चौबीसवें तीर्थंकर श्रीमहावीर स्वामी के शिष्य जमालि, अपने ५०० शिष्यों के साथ विहार कर रहे थे । एक दिन ज्वर से पीड़ित होकर शिष्यों से बोले-मेरे लिए बिछौना विछा दो ।' शिष्य विछौना विछाने लगे। तब फिर उन्होंने पूछा- 'क्या विछौना विछाया ?' शिष्य ने कहा-'हाँ, विछाया।' जमालि ने आकर देखा, पूरा विछौना विछाया नहीं है । क्रोध में आकर उन्होंने कहा-तुम झूठ क्यों बोलते हो ? शिष्य बोला-भगवान महावीर का कथन है-'कडमाणे कड़े । अर्थात् बो
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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