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________________ ५२२ ] ® जैन-तत्त्व प्रकाश 8 यो मां सर्वगतं ज्ञात्वा, न विहिंसेत् कदाचन । तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ अर्थात्-हे अर्जुन ! मैं पृथ्वी में हूँ, वायु में हूँ, अग्नि में हूँ, जल में हूँ, वनस्पति में भी हूँ, मैं सब चलने-फिरने वाले प्राणियों में भी है। इस प्रकार सर्वव्यापक जानकर जो मेरी हिंसा नहीं करता अर्थात् छह काय के जीवों का वध नहीं करता, उसका मैं भी वध नहीं करता। और भी कहा: न सा दीक्षा न सा भिक्षा, न तदानं न तत्तपः। न तज्ज्ञानं न तद् ध्यानं, दया यत्र न वर्तते ॥ अर्थात-जिसके हृदय में दया नहीं है, उसकी दीक्षा, भिक्षा, ध्यान, तप, ज्ञान दान सब मिथ्या है। शास्त्रकारों ने इस प्रकार दया की महिमा बतलाई है । मगर लोग इधर ध्यान न देकर हिंसा में प्रवृत्त होते हैं । इस प्रकार हिंसा में धर्म मानना लौकिक धर्मगत मिथ्यात्व है । होली, दिवाली, दशहरा, रक्षाबंधन, गुरुपूर्णिमा, भाई दूज, काजली तृतीया, अक्षय तृतीया, गणेशचतुर्थी, नागपंचमी, यात्राषष्ठी, शीतलासप्तमी, जन्माष्टमी, राम नवमी, धूप दशमी, झूलना एकादशी, भीम एकादशी, बच्छ द्वादशी, धन तेरस, रूप चतुर्दशी, शरद् पूर्णिमा, हरयालीअमावस्या, आदि त्यौहारों के उपलक्ष्य में मिथ्यादृष्टि देवों की मानता मानना भी लौकिक धर्मगत मिथ्यात्व है। कितनेक लोग एकादशी वगैरह के दिन उपवास करते हैं। वह उपवास नाम मात्र का ही होता है, क्योंकि उस उपवास में अन्य दिनों की अपेक्षा और अधिक खाया जाता है । ऐसी हालत में उपवास की सार्थकता ही क्या है ? नारायण कवि ने ठीक ही कहा है: गिरि औ छुहारे खाय किसमिस बादाम चाय, सांठे और सिंघाड़ों से होत दिल स्वादी है । गोंद गिरी कलाकन्द अरबी और शकरकंद, कुन्दन के पेड़े खाय लोटे बड़ी गादी है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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