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________________ ® मिथ्यात्व [५०५ साहस, शृगाल की धूर्तता, अफीम की कडकता. गन्ने की मिठास, पत्थर का भारीपन, लकड़ी का पानी में तैरने का गुण, यह सब किसके आधार पर है ? स्वभाव से ही यह सब होता है। कान सुनता है, आँख देखती है, नाक मुंधती है, जीभ रस का स्वाद अनुभव करती है, स्पर्शन इन्द्रिय स्पर्श को जानती है, सो स्वभाव से ही समझना चाहिए । मन की चंचलता, पैरों से चलना, हाथों से भोजन आदि कार्य करना, सूर्य की तेजस्विता, चन्द्रमा की शीतलता, नरक में दुःख, स्वर्ग में सुख, सिद्धों में अरूपीपन, धर्मास्तिकाय का गमन-सहायक गुण, अधर्मास्तिकाय का स्थितिसहायक गुण, आकाश का अवगाहदान गुण, काल का वर्तनागुण, जीव का उपयोग गुण, पुद्गल का पूरण-गलन गुण, भव्य की मोक्षगमन-योग्यता, अभव्य का अनन्त संसार-परिभ्रमण, इत्यादि कौन बनाता है ? कोई भी नहीं । यह सब स्वभाव से ही होता है। स्वभाव के सिवाय और कोई भी कारण नहीं है। इस प्रकार स्वभाववादी अन्य कारणों को अस्वीकार करके एक मात्र स्वभाव को ही कारण बतलाता है । [३] नियतिवादी-नियतिवादी कहता है-स्वभाववादी का कथन मिथ्या है। स्वभाव से कुछ नहीं होता। जो कुछ होता है, भवितव्यता से ही होता है। जो पदार्थ जैसा बनने वाला है वह वैसा ही बनता है । देखो, वसन्त ऋतु में श्राम में बेशुमार मौर लगते हैं । लेकिन जितने मौर लगते हैं उतने आम नहीं लगते । जो मौर खिरने को होते हैं, वे खिर जाते हैं और जितने आम लगने होते हैं उतने ही लगते हैं। कितना ही प्रयत्न क्यों न किया जाय, जो होनहार नहीं है वह नहीं हो सकता और जो होनहार है वह टल नहीं सकता। मन्दोदरी सती ने और विभीषण ने रावण को खूब-खूब समझाया कि सीताजी को वापिस लौटा दो, पर उसकी मृत्यु होनहार थी सो वह नहीं माना और अपने ही चक्र से आप मारा गया। श्रीकृष्ण जानते थे कि द्वारिका भस्म हो जायगी, उन्होंने बहुत प्रयत्न किया मगर द्वारिका भस्म होने से नहीं बची। कृष्ण के नेत्रों के सामने ही जलने वाली थी सो जलकर ही रही । परशुराम ने अपने परशु से लाखों का वध किया, किन्तु मौत भाने पर स्वयंभू चक्रवर्ती के हाथ से उनकी मौत हुई।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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