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________________ *मिथ्यात्व * [४६९ सत्य ही समझना चाहिए । समुद्र का सारा पानी लोटे में नहीं समा सकता उसी प्रकार अनन्त ज्ञानी प्रभु के वचन अल्पज्ञ और छमस्थ की समझ में पूरी तरह कैसे पा सकते हैं ? इस प्रकार विचार करके सांशयिक मिथ्यान्व का त्याग करना चाहिए। ५-अनाभांग मिथ्यात्व अनजान में, अज्ञान के कारण अथवा भोलेपन के कारण अनाभोग मिथ्यात्व लगता है । यह मिथ्यात्व द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्य, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और बहुत-से गंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को लगता है। उपयुक्त चार मिथ्यात्व वाले जीवों की अपेक्षा अनाभोग मिथ्या वाले जी अधिक हैं। ६ ... लौकिक मिथ्यात्व जैन मत के सिवाय अन्य मत को मानना. लोकरूढ़ियों में धर्म समझना लौकिक मिथ्यात्व कहलाता है । इसके तीन भेद हैं-१) देवगत लौकिक मिथ्यात्व (२) गुरुगत लौकिक मिथ्यात्व और (३) धर्मगत लौकिक मिथ्यात्व । [१] देवगत लौकिक मिथ्यात्व-सम्पूर्ण ज्ञान और परिपूर्ण वीतरागता सच्चे देव के लक्षण है । यह लक्षण जिनमें न पाये जाएँ, उन देवों को देव मानना देवगत मिथ्यात्व है । कितनेक लोग चित्र, वस्त्र, कागज, मिट्टी, काष्ठ, पत्थर आदि से अपने हाथों से देव बनाकर उसे असली देव ही मानते हैं और उसी को पूजते हैं। ऐसे देव में ज्ञान आदि देवगत गुण नहीं हैं, अतः वह भाव-देव नहीं हो सकता । ऐसे देवों में से किसी के साथ स्त्री होती है। इससे अनुमान होता है कि वे अभी तक काम-शत्रु के पंजे में से छूट नहीं सके हैं, वे विषयलुब्ध हैं। कोई देव हाथ में शस्त्र धारण किये हुए होता है, जिससे अनुमान होता है कि या तो उसे दूसरों से भय है अथवा उसका अपने शत्र की हत्या करने का काम शेष रह गया है। कोई-कोई देव वाद्य बजाते हुए होते हैं । वे मानों अपने तथा दूसरों के उदारा चित्त को बाजा
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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