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________________ * मिथ्यात्व [ ४६ ३ है । श्रात्मा मोह के वश होकर धर्म के नाम पर भी पाप करने में आनन्द मानता है । आत्मा अनादि काल से पाप से परिचित है, इस कारण विना सिखाये पाप सीख जाता है। गर्भाशय मे बाहर निकलने ही बालक को रोना कौन सिखला देता है ? दूध पीने की विधि की शिक्षा कौन देता है ? और बड़ा होने पर स्त्री के साथ क्रीड़ा करने की शिक्षा कौन देता है ? श्रनादि काल से आत्मा अनन्त बार ऐसे काम करके आया है। इसी अनुभव के आधार पर उसे बिना सिखाये ऐसी बातें याद आ जाती हैं और इनका आचरण करने लगता है। ऐसा समझ कर हठाग्रही, कदाग्रही, दुराग्रही न बनते हुए तथा धनवानों और विद्वान् कहलाने वालों की तरफ न देखते हुए अपने आत्मा के कल्याण - कल्याण की घोर दृष्टि रख कर श्रभिग्रहिक freera का त्याग करके सत्य धर्म में प्रवृत्त होना चाहिए | २ - अनाभिग्राहक मिथ्यात्व कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो हठाग्रही तो नहीं होते, किन्तु उनमें धर्मअधर्म, निजगुण- परगुण और सत्य-असत्य को परखने की बुद्धि ही नहीं होती । उनमें जन्म से ही एक प्रकार की मूढ़ता होती हैं, जिसके कारण वे सत्यधर्म और पाखण्डधर्म का निर्णय नहीं कर सकते। जैसे हलुवा आदि मधुर पदार्थों में कुड़छी घूमती तो है, मगर अपने जड़ स्वभाव के कारण स्वाद की परीक्षा नहीं कर सकती, उसी प्रकार बहुतेरे भोले प्राणी, बड़ी उम्र के हो जाने पर भी धर्म के संबन्ध में पूछने पर उत्तर देते हैं- 'हमें पक्षपात में पड़ने की क्या आवश्यकता है ? किसी के धर्म को बुरा क्यों कहना चाहिए १ कौन जाने कौन-सा धर्म सच्चा है और कौन-सा धर्म झूठा है ? अधिक विचार करने पर हमें तो ऐसा लगता है कि सभी धर्म सरीखे हैं । कोई खोटा नहीं हैं। क्योंकि सभी धर्मो में बड़े-बड़े विद्वान् महात्मा, पंडित, धर्मोपदेशक देखे जाते हैं । वे क्या झूठे हो सकते हैं ? हम किस खेत की मूली हैं कि उनमें से सच्चे झूठे की परख कर सकें ! हमें किसी धर्म के झगड़े में नहीं पड़ना है । हमारे लिए सभी धर्म सरीखे और सच्चे हैं। हम तो सभी देवों को और गुरुओं को
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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