SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 531
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * सूत्र धर्म * [४८७ करता है, उसी प्रकार विवेकः पुरुष को बार-सार ग्रहण कर लेना चाहिए । अनकनंरायोच्छेदि. परोक्षायस्य दर्शकम् । सर्वस्य लोचनं शास्त्रं, यस्य नास्त्यन्य एव सः। शास्त्रज्ञान अनेक शंकाओं का निराकरण करने वाला, मोक्षमार्गप्रदशक, और सब जीवों के लिए मंत्र रूप है । जिभ शास्त्रज्ञान रूपी नेत्र प्राप्त नहीं है, वह अंधे के समान है। गाथा-जिणवयणे अणुरता, जिणबयणं जे कति भावेणं । अमला अकिनिहा, हंति परित्तनसाग । अर्थ-जो जीव संक्लिप्ट परिण!.से रहित, निर्मल स्वभाव वाले होते हैं, वे श्रीजिनेश्वरप्रशन वचन में नुरक्त बनते हैं। वे जिनवचन की आराधना करते हैं और मनार का पार पा लेते है। .. .
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy