SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २० ] ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश ॐ रोशनी करना, मण्डप बनाना, भोग लगाना इत्यादि क्रियाएँ करके भगवान् को जो प्रसन्न करना चाहते हैं, वे बड़े मोहमुग्ध हैं। (१८) हास्य :-किसी अपूर्व-अद्भुत वस्तु या क्रिया आदि को देख कर हँसी आती है । सर्वज्ञ होने के कारण अरिहन्त के लिए कोई वस्तु अपूर्व नहीं है, गुप्त नहीं हैं। इस कारण उन्हें कभी हँसी भी नहीं आती। अरिहन्त भगवान् इन अठारह दोषों से रहित होते हैं। इन अठारह दोषों में समस्त दोषों का समावेश हो जाता है, अतः अरिहन्त भगवान् को समस्त दोषों से रहित; सर्वथा निर्दोष समझना चाहिए । अरिहन्त को 'नमोत्थुण उक्त प्रकार के अनन्तानन्त गुणों के धारक अरिहन्ताणं-चार घन घातिया कर्मों को तथा कर्मोत्पादक राग-द्वेष रूप शत्रुओं को नष्ट करने वाले। भगवंताणं-भव-भ्रमण के नाशक तथा बारह गुणों के धारक * आइगराणं-श्रुतधर्म और चारित्रधर्म की आदि करने वाले । +तित्थयराणं-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चारों तीर्थों के कर्ता (तीर्थ के कर्ता होने से ही अरिहन्त तीर्थङ्कर कहलाते हैं)। • सहसंबुद्धाणं-तीर्थङ्कर का जीव पहले से ही अवधिज्ञानी होता है । उन्हें अपने कर्तव्य का ज्ञान होता है। इस कारण वे गुरु के उपदेश के * 'भग' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । जैसे: भगं तु ज्ञानयोनीच्छायशो माहात्म्यमुक्तिषु। ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ ऐश्वर्य वीर्य वैराग्य धर्म श्री रत्न भानुषु ॥ -(विश्वलोचन कोश) इनमें से भगवान् में ज्ञान, यश माहात्म्य, मुक्ति, ऐश्वर्य, वीर्य, वैराग्य, धर्म और श्री का अर्थ घटित होता है। + जिससे जीव संसार से तिरें उसे तीर्थ कहते हैं। ग्रंथ, घर, नदी, पर्वत आदि संसार तारने वाले नहीं है, इसलिए भगवान् ने चार तीर्थ कहे हैं।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy