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* जैन-तत्त्व प्रकाश
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(६) मिथ्या श्रुत — अपनी मनःकल्पना से बनाये हुए शास्त्रों द्वारा, जिनमें हिंसा आदि पाँच श्रस्रवों के सेवन का विधान हो, तथा जो युक्तियुक्त और आत्मार्थ के साधक न हों, ऐसे श्रुत से होने वाला ज्ञान ।
(७) सादि श्रुत - जिस श्रुतज्ञान की आदि हो । (८) अनादि श्रुत - श्रादि - रहित श्रुतज्ञान । (ह) सपर्यवसित श्रुत- - अन्त सहित श्रुतज्ञान | (१०) पर्यवसित श्रुत - अन्त-रहित श्रुतज्ञान |* (११) गमिक श्रुत - दृष्टिवाद अंग का ज्ञान ।
(१२) अगमिक श्रुत - आचारांग आदि कालिक सूत्रों का ज्ञान । (१३) अंगप्रविष्ट - बारह अंग - आचारांग आदि ।
(१४) अंगवा - दो प्रकार का है— आवश्यक और श्रावश्यकव्यतिरिक्त | छह आवश्यकों का प्रतिप्रादन करने वाला शास्त्र आवश्यक कहलाता है और कालिक, उत्कालिक आदि सूत्र आवश्यकव्यतिरिक्त हैं ।
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का आपस में घनिष्ठ संबंध है । जगत् का कोई जीव ऐसा नहीं है, जिसे यह दोनों ज्ञान प्राप्त न हों । सम्यग्दृष्टि वाले जीव के यह ज्ञान, ज्ञान कहलाते हैं और मिथ्यादृष्टिवाले के अज्ञान अर्थात् कुमतिज्ञान और कुश्रुतज्ञान कहलाते हैं। दोनों ज्ञानों में कार्य-कारण का संबंध
* सादि, अनादि, सपर्यवसित और अपर्यवसित श्रुत का स्पष्टीकरण:- (१) द्रव्य से कोई जीव अध्ययन करने बैठा । वह अध्ययन पूर्ण करेगा । अतः उसकी आदि और अन्त होने से एक जीव की अपेक्षा वह श्रुतज्ञान सादि- सान्त है । अनेक जीवों ने अनादि भूतकाल में किया है और भविष्य में अध्ययन करेंगे। उसकी आदि - अन्त न होने से वह नदि अनन्त है । (२) क्षेत्र से भरत और ऐवत क्षेत्र में समय का परिवर्तन होने से सादि-सन्त श्रुत होता है और महाविदेह में सदैव सरीखा काल होने से अनादि - अनन्त श्रुत होता है । (३) काल से उत्सर्पिणी, अवसर्पिणीकाल की अपेक्षा अनादि - अनन्त ( ४ ) भाव से प्रत्येक नीर्थङ्क द्वारा प्रकाशित भाव की अपेक्षाः सादि- सान्त है। क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा श्रुतज्ञान अनादि-अनन्त जानना चाहिए ।