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________________ * जैन-तत्त्व प्रकाश mers को उत्पन्न कर सके, ऐसा ज्ञान) ।* यह चारों ज्ञान कभी स्पर्शनेन्द्रिय से होते हैं, कभी रसनेन्द्रिय से होते हैं, कभी घ्राणेन्द्रिय से, कभी चतु-इन्द्रिय से, कभी श्रोत्रेन्द्रिय से और कभी मन से होते हैं । इस कारण इसके चौबीस (६४४२४) भेद हो जाते हैं। अवग्रह ज्ञान दो प्रकार का है-व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह । ऊपर अवग्रह के जो छह भेद बतलाये हैं, वे अर्थावग्रह के हैं। व्यंजनावग्रह चव और मन को छोड़कर सिर्फ चार ही इन्द्रियों से होता है। इस कारण उसके चार भेद उक्त चौबीस भेदों में सम्मिलित होने पर मतिज्ञान के २८ भेद हो जाते हैं। विस्तार से मतिज्ञान के ३४० भेद भी हैं। वे इस प्रकार हैं: ऊपर कहा हुआ २८ प्रकार का मतिज्ञान १२ प्रकार के विषयों को ग्रहण करता है। अतः २८ को १२ के साथ गुणित करने पर ३३६ भेद होते हैं। उदाहरणार्थ-मान लीजिए, कहीं अनेक बाजे बज रहे हैं और अनेक मनुष्य उन्हें सुन रहे हैं । किन्तु उनमें से मतिज्ञान के क्षयोपशम के अनुसार कोई [१] बहु अर्थात् एक साथ अनेक शब्दों को ग्रहण करता है। कोई [२] अबहु अर्थात् थोड़े शब्दों को ग्रहण करता है। कोई [३] बहुविध अर्थात् यह ढोल की आवाज है, यह ताखे की आवाज है, इस प्रकार भेद सहित ग्रहण करता है। कोई [४] अबहुविध अर्थात् एक ही प्रकार की आवाज को ग्रहण करता है । [५] क्षिप्र-कोई शीघ्रता से ग्रहण करता है। [६] अक्षिप्र-कोई विलम्ब से ग्रहण करता है। [७] सलिंग-कोई एक अंश से सम्पूर्ण शब्द का अनुमान करके ग्रहण करता है। [८] अलिंग के जैसे मिट्टी के कोरे बर्तन में पानी की एक-दो बूद छिड़कने से उनका कोई असर नहीं होता-दीखता, किन्तु बार-बार छिड़कने से बर्तन गीला हो जाता है, उसी प्रकार निद्राग्रस्त मनुष्य को जब कोई पुकारता है तो निद्रित मनुष्य की श्रोत्रेन्द्रिय के साथ शन्द का संयोग होता है। पहले-पहल उसे अत्यन्त अव्यक्त ज्ञान होता है। यह व्यंजनाग्रह है। तत्पश्चात् वह सोचता है-मुझे कोई पुकारता है। यह अर्थावग्रह हुआ। 'मुझे कौन पुकारता है। इस प्रकार विशेष जानने की अभिलाषा को ईहा कहते हैं। 'अमुक मनुष्य मुझे पुकार रहा है' इस प्रकार का निश्चय हो जाना अवाय है । उस पुकार को धारण कह रखना धारणा है। जानिस्मरणज्ञान भी धारणा का ही एक प्रकार है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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