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________________ * सूत्र धर्म * [ ४५७ main . को निर्जरा मानता है। समभिरूढ़ नय शुक्लध्यान पर प्रारूह होरमात्मा को उज्ज्वल बनाने वाले को निर्जरा मानता है। भूना समस्त कर्मकलंक से रहित शुद्ध आत्मा को निर्जरा मानता है। बन्ध तत्व पर सात नय-नैगमनय बंध के कारण को बंध मानना है। संग्रहनय राग-द्वेष से उत्पन्न होने वाली आठ नर्म प्रनिग को बन्ध मानता है । व्यवहार नय राग और द्वेष के कारण क्षीर-नीर के समान जीवपुद्गल के बन्ध से जो बँधा दृष्टिगोचर हो उसे वन्ध मानता है। ऋजुसूत्रनय कर्मबन्ध के अनुसार सुखी या दुःखी होने वाले जीव को तथा मांसभक्षण आदि अशुभ काम में प्रवृत्ति करने वाले को बन्ध मानता है। शब्दनय अज्ञान से गृहीत, व्यामोह के कारण कार्य-अकार्य का विचार न करने वाले. अतः कर्मबन्ध करने वाले को बन्ध मानता है। (यह नय कर्मविपाक की प्रकृति को बन्ध गिनता है) समभिरूढ़ना बारी-रौद्र ध्यान में आत्मा को जो मलीन बनाता है, उसे बन्ध कहता है । एवंभूतना पानी के अशुद्ध अध्यवसाय से होने वाले भावकर्म के संचय को बंध मानता है। मोक्ष तत्व पर सात नय-निश्चयनय की अपेक्षा मोक्ष में नया व्यवहार ही नहीं है । व्यवहारनय की अपेक्षा मोक्षतत्त्व पर मातो न घटाते हैंनैगमनय चारों गतियों के बन्ध के छूटने को मोक्ष कहता है । संग्रहनय पूर्वकृत कर्मों से छूट कर एक देश से उज्ज्वल होने को मोक्ष कहता है । व्यवहार नय परीतसंसारी तथा सम्यक्त्वी को मोक्ष कहता है। ऋजुसूत्रनय क्षपक श्रेणी पर चढ़ने वाले को मोक्ष कहता है। शब्दनय सयोगी केवली को मोक्ष कहता है । समभिरूढ़नप चतुर्दश गुणस्थानवी शैलेशीकरण गुण वाले को मोक्ष कहता है। एवंभूतनय सिद्धिक्षेत्र में स्थित म भगवान् को मोक्ष मानता है। चार निक्षेप प्रतिपाद्य वस्तु का ठीक-ठीक स्वरूप समझाने के लिए उसे नाम, स्थापना. आदि के रूप में स्थापित करना निक्षेप कहलाता है। निक्षेप के
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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