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________________ 8 जैन तत्त्व प्रकाश १८] कारण मद नहीं करते। अर्थात् गर्व न करना ही सम्पूर्णता का चिह्न है । कहा भी है- 'सम्पूर्णकुम्भो न करोति शब्दम् ' ( ४ ) क्रोध : - ' क्षमाशूर अरिहन्त' कहलाते हैं । वे क्षमा के सागर होते हैं । (५) माया : - छल-कपट को कहते हैं । अरिहन्त अत्यन्त सरल स्वभाव वाले होते हैं । (६) लोभ : - इच्छा या तृष्णा को कहते हैं । अरिहन्त भगवान् प्राप्त हुई ऋद्धि का परित्याग करके अनगार व्यवस्था अङ्गीकार करते हैं । उन्हें अतिशय आदि की महान् ऋद्धि प्राप्त होती है, फिर भी उसकी इच्छा नहीं करते। वे अनन्त सन्तोष सागर में ही रमण करते रहते हैं । (७) रति : - इष्ट वस्तु की प्राप्ति से होने वाली खुशी रति कहलाती है। अरिहन्त वेदी, अकषायी और वीतराग होने के कारण तिल मात्र भी रति का अनुभव नहीं करते, क्योंकि भगवान् को कोई भी वस्तु नहीं है । ( ८ ) अरति : - अनिष्ट या अमनोज्ञ वस्तु के संयोग से होने वाली प्रीति रति कहलाती है । अरिहन्त भगवान् समभावी होने से किसी भी दुःखप्रद संयोग से दुःखी नहीं होते । (६) निद्रा : – दर्शनावरण कर्म के उदय से निद्रा श्राती है । इसका सर्वथा क्षय हो जाने के कारण अरिहन्त निरन्तर जागृत ही रहते हैं । (१०) शोक : -- इष्ट वस्तु के वियोग से शोक होता है । अरिहन्त भगवान् के लिए कोई इष्ट नहीं है और किसी भी परवस्तु के साथ उनका संयोग भी नहीं होता, अतः वियोग का प्रश्न ही नहीं उठता और इसीलिए उन्हें शोक नहीं होता । (११) अलीक : - झूठ बोलना अलीक कहलाता है । अरिहन्त सर्वथा निस्पृह होने से कभी किंचित् भी मिथ्या भाषण नहीं करते और न अपना वचन पलटते हैं । भगवान् शुद्ध सत्य की ही प्ररूपणा करते हैं ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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