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________________ ४५४ ] ® जैन-तत्त्व प्रकाश बहुत-सी ऋद्धि अर्थात् शुभ पुद्गलों का संयोग देख कर लोग कहते हैंदेखो, इस पुण्यशाली जीव को पुण्य के योग से कैसा सुन्दर संयोग मिला है ! संग्रहनय उच्च कुल, उच्च जाति, सुन्दर रूप, सातावेदनीय आदि पुद्गलों को एक ही समझता है। व्यवहारनय शारीरिक मानसिक सुख से पुण्य प्रकृति का व्यवहार देखकर उसी को पुण्य मानता है। ऋजुसूत्रनय शुभ कर्म का उदय होने से इच्छित मनोज्ञ वस्तु की प्राप्ति देखकर उसे पुण्य मानता है। शब्दनय वर्तमान में सुख भोगने वाले को ही पुण्यवान् मानता है। प्रश्न-अगर ऐसा है तो ऋजुसूत्रनय और शब्दनय में क्या अन्तर है ? उत्तर- ऋजुसूत्रनय तीनों कालों में सुख भोगने वालों को पुण्यवान् मानता है और शब्दनय एक मात्र वर्तमान काल में जो सुख भोग रहा है उसी को पुण्यवान् मानता है । जैसे-कोई चक्रवर्ती महाराज नींद में सो रहा है । उसे जुसूत्र नय वाला सुखी मानेगा, क्यों कि उसने अतीत काल में सुख भोगा है और भविष्य काल में वह सुख भोगेगा। किन्तु शब्द नय वाला उसे पुण्यवान् नहीं कहेगा, क्यों कि निद्रा पाप कर्म के उदय से आती है। जिस समय वह चक्रवर्ती नींद से जाग कर सातावेदनीय कर्म का भोग कर के सुख पाएगा, तब शब्द उसे पुण्यवान् कहेगा। समभिरूढ़ नय पुण्य प्रकृति के पुद्गलों के प्रयोग से जो आनन्द में लीन बना हुआ है उसे पुण्य मानता है । एवंभूत नय पुण्यप्रकृति के गुण के ज्ञाता को पुण्य मानता है। पाप तत्त्व पर सात नय-पाप तव का कथन पुण्य तत्व के समान ही समझना चाहिए, किन्तु सुख के स्थान पर दुःख बोलना चाहिए । : आस्रवतत्त्व पर सात नय-नैगमनय परिणत होने वाले पुद्गलों को आस्रव मानता है । संग्रहनय प्रयोग से परिणत होने वाले मिथ्यात्व आदि के पुद्गलों के दल को आस्रव मानता है। व्यवहार नय अप्रत्याख्यानी के उदय से होने वाली अशुभ योग की प्रवृत्ति को अशुभ आस्रव मानता है
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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