SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ ] ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश [३२] अर्थ, पद, वर्ण, वाक्य-सब स्फुट कहते हैं-आपस में भेलसेल करके नहीं कहते। [३३] भगवान् ऐसे सात्विक वचन कहते हैं जो ओजस्वी और प्रभावशाली हों। [३४] प्रस्तुत अर्थ की सिद्धि होने पर ही दूसरे अर्थ को प्रारम्भ करते हैं-~-अर्थात् एक कथन को दृढ़ करके ही दूसरा कथन करते हैं। [३५] धर्मोपदेश देते-देते कितना ही समय क्यों न बीत जाय, भगवान् कभी थकते नहीं हैं, किन्तु ज्यों के त्यों निरायास रहते हैं ।* ___* जिस क्षेत्र (ग्राम-नगर आदि) में अन्यमतावलम्बी अधिक होते हैं या श्रोतागण बहुत अधिक आते हैं, वहाँ देवता समवसरण की रचना करते हैं। समवप्तरण की रचना इस प्रकार की जाती है-समवसरण के चारों ओर तीन कोट होते हैं। पहला कोट चांदी का होता है और उस पर सोने के कंगूरे होते हैं। इस कोट के भीतर,१३०० धनुष का अन्तर छोड़कर दूसरा कोट सुवर्ण का होता है । उस पर रत्नों के कंगूरे होते हैं। फिर उसके भीतर १३०० धनुष का अन्तर छोड़कर चौतरफ घिरा हुआ तीसरा कोट होता है। यह तीसरा कोट रत्नों का होता है और उस पर मणिरत्नों के ही कंगूरे होते हैं। इस कोट के मध्य में अष्ट महाप्रतिहार्य से युक्त भगवान् विराजमान होकर धर्मोपदेश देते हैं। तीर्थङ्कर भगवान् से ईशानकोण में श्रावक, श्राविकाएँ और वैमानिक देव बैठते हैं । माग्नेय कोण में साधु, साध्वी और वैमानिक देवों की देवियों के बैठने की जगह होती है। वायव्य कोण में भवनपति देव, वाणव्यन्तर देव और ज्योतिषी देव बैठते हैं । नैऋत्य कोण में भवनपति देवों की देवियाँ, वाणव्यन्तरों की देवियाँ और ज्योतिषी देवों की देवियाँ बैठती हैं। इस प्रकार बारह तरह की परिषद् जुड़ती है। किसी-किसी प्राचार्य के कथनानुसार चार प्रकार के देव, चार प्रकार की देवियाँ तथा मनुष्य, मनुष्यनी, तिर्यञ्च और तिर्यञ्चनी; इस तरह बारह प्रकार की परिषद् बैटती है। समवसरण के पहले कोट में चढ़ने के लिए १०००० पंक्तियाँ होती हैं। दूसरे और तीसरे कोट में चढ़ने के लिए पाँच-पाँच हजार पंक्तियाँ होती हैं। इस प्रकार कुल बीस हजार पंक्तियाँ एक-एक हाथ की ऊँचाई पर होती हैं। चार हाथ का एक धनुष होता है और दो हजार धनुष का एक कोस होता है। इस हिसाब से समवसरण अढ़ाई कोस ऊँचा होता है। किन्तु तीर्थङ्कर भगवान् के अतिशय के कारण तथा चढ़ने वालों की उमंग के कारण कोई चढ़ने वाले थकावट अनुभव नहीं करते। ऐसा दिगम्बर-आम्नाय के ग्रन्थ में उल्लेख है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy