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________________ ४.४ ] * जन-तत्त्व प्रकाश * उपघातनाम (ऐसे शरीर की प्राप्ति होना कि अपने ही अंगोपांगों से आपकी घात हो), (७२) तीर्थकर नाम (७३) निर्माण नाम (७४) असनाम (७५) बादर नाम (७६) प्रत्येक नाम (७७) पर्याप्त नाम (७८) स्थिर नाम (७६) शुभ नाम (८०) भगन्ना (८१) सुस्वर नाम (८२) श्रादेय नाम (८३) यश कीर्ति नाम (४) सादर नाम (८५) सूक्ष्म नाम (८६) साधारण नाम (८७) अपर्याप्त नाम (८८) अशुभ नाम (८६) अस्थिर नाम (६०) दुर्भग नाम (६१) दुस्वर नाम (६२) अनादेय नाम (६३) अयशःकीर्ति नाम । यह ६३ प्रकृतियाँ नामकम ली हैं। (७) गोत्रकर्म-जिस कर्म के उदय से लोक में प्रतिष्ठित गा अप्रतिटिन कुल में जन्म हो यह गोत्रक कहलाता है। यह दो प्रकार का है... उचगोत्र और नीच ; उच्चगोत्र कर्म का बंध पाठ प्रकार से होता है.----[१] जाति अर्थात् माता के पक्ष का अभिमान न करना [२] कुल का अर्थात् पिता के पक्ष का अभिमान न करना [३] बल का अभिमान न करना [४] रूप का अभिमान न करना [५] तपस्या का अभिमान न करना [६] श्रुतज्ञान का अभिमान न करना [७] लाभ का अभिमान न करना TE ऐश्वर्य का अभिमान न करना । उच्च गोत्र का फल भी इन्हीं आठ प्रकारों से भोगा जाता है। अर्थात् [१] उत्तम जाति प्राप्त होना [२] उत्तम कुल की प्राप्ति होना [३] विशिष्ट बल की प्राप्ति होना [४] विशिष्ट रूप की प्राप्ति होना [५] तप में शूरवीरता होना [६] श्रुत में विद्वान होना [७] जिसे चाहे उसी वस्तु का लाभ होना [८] विशिष्ट ऐश्वयं की प्राप्ति होना । नीचगोत्र कर्म आठ प्रकार से बँधता है। उच्च गोत्र के बन्धन के कारणों से विपरीत आठ कारण यहाँ समझ लेने चाहिए । अर्थात् जाति आदि आठ का अभिमान करने से नीचगोत्र का बन्ध होता है । इसका फल भी उच्चगोत्र से विपरीत पाठ प्रकार से भोगा जाता है। अर्थात् उच्चगोत्र के फलस्वरूप जिन जाति आदि की उच्चता प्राप्त होती है. नीचगोत्र के फलस्वरूप उन्हीं की हीनता प्राप्त होती है । (८) अन्तराय कर्म- - दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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