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________________ ४३०॥ ® जैन-तत्व प्रकाश निद्रा के समय दिन में सोचा हुआ कार्य सोते-सोते कर लिया जाय । इस निद्रा के समय मृत्यु हो जाय तो नरकगति प्राप्त होती है।) (३) वेदनीयकर्म-जिसके निमित्त से सुख और दुःख का अनुभव हो, वह वेदनीयकर्म कहलाता है। इसके दो भेद हैं-सातावेदनीय और असातावेदनीय । सातावेदनीयकर्म दस प्रकार से बँधता है- (१) प्राणानुकम्पा से अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों की दया करने से (२) भूतानुकम्पा से अर्थात् वनस्पतिकाय पर दया करने से (३) जीवानुकम्पा से अर्थात् पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा न करने से, उनके दुःख को दूर करने से, उन्हें साता पहुँचाने से (४) सत्वानुकम्पा से अर्थात् पृथ्वीकाय, अप्काय तेजस्काय और वायुकाय के जीवों की रक्षा करने से (५) बहुत प्राणों जीवों, सत्वों और भूतों को दुःख न देने से (६) उन्हें शोक न उपजाने से (७) त्रास न देने से (८) नहीं रुलाने से (ह) नहीं मारने से (१०) परिताप न पहुँचाने से। इन दस कारणों से बाँधे हुए सातावेदनीय कर्म के शुभ फल इस प्रकार भोगे जाते हैं—(१) मनोज्ञ (इष्ट) शब्दों की प्राप्ति होना (२) मनोज्ञ रूप की प्राप्ति (३) मनोज्ञ गंध की प्राप्ति (४) मनोज्ञ रस की प्राप्ति (५) मनोज्ञ स्पर्श की प्राप्ति (६) मन का आनन्द में रहना (७) वचन मधुर होना (८) काय निरोगी और स्वरूपवान् होना । ___ असातावेदनीय कर्म का बंध बारह * प्रकार से होता है—[१] प्राणी, भूत,जीच, सत्व को दुःख देना [२] शोक उपजाना [३] रुलाना [४] झुराना [५] मारना [६] परिताप देना, यह छह कार्य सामान्य रूप से करे और इन्हीं छह कार्यों को विशेष रूप से करे तो बारह प्रकार से असातावेदनीय कर्म का बंध होता है। * कोई बारह प्रकार इस तरह गिनते हैं-(१) पर दुक्खणाए (२) परसोयणयाए (३) परभूरणाए (४) परतिप्पणयाए (५) परपिट्टण्याए (६) परपरियावणयाए (७) बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खणयाए (८) सोयणयाए (भरणाए (१०) तिप्पणयाए (११) पिटरस्थाए (१२) परियायनाए ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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