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________________ ४२८ ] ৪ জনবল সন্ধা ॥ ७-निर्जरा तत्त्व आत्मा रूपी नौका में कर्म रूपी पानी आ रहा था। उसे संवर रूपी डाट लगा कर रोक दिया। मगर पानी का आना रोकने से पहले जो पानी आ चुका था उसे उलीच कर नौका को पानी से रहित करना चाहिए । ऐसा करने से ही नौका किनारे लग सकती है । इस प्रकार संवर द्वारा कों का आना रोक देने के साथ पहले बँधे हुए कर्मों का क्षय करना आवश्यक है। उन्हें क्षय करना ही निर्जरा है । निर्जरा करने का प्रधान कारण तप है। तप के बारह भेद हैं, जिनका वर्णन तपाचार में पहले किया जा चुका है। तप के बारह भेदों के कारण निर्जरा के भी वही बारह भेद होते हैं । ८-बंध तत्त्व दूध में पानी की तरह, धातु में मिट्टी की भाँति, फूल में इत्र के समान, तिल में तेल की नाई आत्मप्रदेश और कर्मपुद्गल आपस में मिले हुए हैं। इस प्रकार आत्मप्रदेशों का और पुद्गल के दलिकों का एकमेक होना बंध कहलाता है । बन्ध चार प्रकार का है-(१) प्रकृतिबंध (२) स्थितिबंध (३) अनुभागबंध और (४) प्रदेशबंध । प्रकृतिबंध 'प्रकृतिः स्वभावः प्रोक्तः' अर्थात् कर्मपुद्गल जब आत्मा के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, तब उनमें भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वभाव उत्पन्न होते हैं । उस स्वभाव को प्रकृतिबंध कहते हैं। जैसे जिस कर्म की प्रकृति ज्ञान को आच्छादित करने की होती है, वह ज्ञानावरणकर्म कहलाता है। जिस कर्म में दर्शन को ढंकने का स्वभाव उत्पन्न होता है, वह दर्शनावरणकर्म कहलाता
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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