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________________ * सूत्र धर्म [ ४२५ क्रिया का दूसरा अर्थ है - असावधान होकर पापकारी ( सावद्य) भाषा बोलना, गमनागमन करना, शरीर का संकोच प्रसारण करना तथा दूसरों से पापकारी काम कराने से होने वाली हिंसा अणापयोगवत्तिया क्रिया कहलाती है । (२२) सामुदायिा क्रिया — बहुत से लोग मिल कर जो एक कार्य करते हैं उससे होने वाली क्रिया । जैसे कम्पनी बनाकर व्यापार करना, इकट्ठा होकर नाटक देखना, मण्डल बना कर व्यापार करना, टोली बनाकर ताश - शतरंज आदि खेलना, हजारों आदमियों का मिलकर फाँसी की सजा देखना, वेश्या का नाच देखना, मेले-ठेले में हजारों यात्रियों का एकत्र होना आदि । ऐसे प्रसंगों पर प्रायः सब मनुष्यों के परिणाम (विचार) एक सरीखे होते हैं अतः कर्म का बंध भी एक सरीखा होता है और प्रायः उसका फल भी एक साथ भुगतना पड़ता है। जैसे पानी में जहाज का डूब जाना, बाढ़ जाना, हवाई जहाज का गिर पड़ना, प्लेग या महामारी फैलने से कष्ट होना आदि निमित्तों से एक साथ बहुतों की मृत्यु होती है। इस क्रिया के तीन भेद हैं- ( १ ) सान्तर-सामुदाणी अर्थात् काम अंतर सहित करना बहुत से लोग मिलकर एक साथ काम करके बीच में थोड़े समय के लिए छोड़ देते हैं । फिर कुछ दिनों बाद उस काम को करते हैं । (२) निरन्तर - कुछ लोग बीच में छोड़े बिना - निरन्तर सामुदाणी काम करते हैं । (३) तदुभय- कुछ लोग सामुदाणी काम अन्तर सहित भी करते हैं और बिना अंतर के भी करते हैं । इनसे होने वाली क्रिया सामुदाणिया क्रिया कहलाती है । (२३) पेजवतिया (प्रेमप्रत्यया ) - प्रेम (अनुराग) के कारण लगने वाली क्रिया । इसके दो भेद हैं- (१) मायाचार करने से लगने वाली क्रिया और (२) लोभ करने से लगने वाली क्रिया । यहाँ माया लोभ को राग की प्रकृति माना गया है। अर्थात् माया और लोभ रागकषाय के भेद माने गये हैं । (२४) दोसवतिया (द्वेषप्रत्यया) क्रिया-द्वेष भाव से लगने वाली
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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