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________________ ४२० ] * जैन-तत्त्व प्रकाश शरीर का अन्त होने पर वह पंच भूतों में मिल जाती हैं। फिर कुछ भी शेष नहीं रहता । इस प्रकार मानने वाले नास्तिक के मत से परलोक और पूर्वजन्म आदि कुछ भी नहीं ठहरता। अगर परलोक नहीं है तो इस जन्म में किये हुए पुण्य-पाप का फल आत्मा कहाँ और कैसे भोगेगा ? अगर पूर्वजन्म नहीं है तो इस जन्म में कोई सुखी, कोई दुःखी क्यों दिखाई देता है ? अगर सब के आत्मा पाँच महाभूतों से उत्पन्न हुए हैं तो सब सरीखे क्यों नहीं हैं ? संसार में, जीवों में जो विषमता देखी जाती है वह विना कारण के नहीं है । उसका कारण पूर्वजन्म में किये हुए शुभ या अशुभ कर्म ही हैं। कहा जा सकता है कि यदि पूर्वजन्म है तो हमें उसका स्मरण क्यों नहीं होता ? अनेक वर्षों तक आत्मा पूर्वभवों में रहा हो तो उसे याद क्यों नहीं आती ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि पूर्वभव की बात तो दूर रही; इसी भव में आप माता के उदर में रहे हैं, यह बात तो आप भी सत्य मानते हैं। तो फिर उसकी याद क्यों नहीं आती ? माता के उदर की कैसी रचना है और किस प्रकार वहाँ नौ मास से कुछ अधिक समय तक निवास किया ? इन बातों का स्मरण न होने के कारण यह भी कहने लगोगे कि जीव गर्भ में निवास नहीं करता ? गर्भवास की बातें स्मरण न होने पर भी पूर्वजन्म क्यों नहीं स्वीकार करते ? मनुष्य जब जागृत दशा में से स्वम-दशा में आता है तब उसे जागृत दशा की स्थिति का और शरीर का भी भान नहीं रहता। इसी प्रकार जब वह स्वम-दशा से जागृत-दशा में आता है तो वह स्वप्न-दशा की बातें भूल जाता है। फिर भी जागृतदशा और स्वमदशा को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। फिर पूर्व जन्म की बात तो दूर की है। उसका स्मरण न होने मात्र से पूर्वजन्म को स्वीकार न करना विवेकशीलता नहीं है। इसके अतिरिक्त विशेष क्षयोपशम वाले जीवों को पूर्वजन्म की बातें याद भी आ जाती हैं और वे अपने पूर्वभवों को जैसा का तैसा देखते भी हैं । अतः कर्मों के क्षयोपशम के लिए प्रयत्नशील बनो। अपनी स्मृति और बुद्धि पर ही भरोसा करके मत चैठे रहो। महापुरुषों ने आध्यात्मिक साधना करके
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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