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________________ * जैन-तत्त्व प्रकाश® क्रिया कहलाती है और उपशान्त कषाय, क्षीणकषाय तथा संयोग केवली नामक ग्यारहवें, बारहनें और तेरहवें गुणस्थानकों में केवल योग की प्रवृत्ति से जो क्रिया लगती है वह ईर्यापथिक क्रिया कहलाती है। इनमें से इर्यापथिक क्रिया एक ही प्रकार की है और साम्परायिक क्रिया के २४ प्रकार हैं:. . (१) कायिकी क्रिया-दुष्ट भाव से युक्त होकर प्रयत्न करना, अयतनापूर्वक काय की प्रवृत्ति होना, मेरा शरीर दुर्बल हो जायगा, इत्यादि विचार से व्रत-नियम आदि का पालन या धर्माचरण न करके प्रारंभजनक कामों में लगना कायिकी क्रिया कहलाती है। यह दो प्रकार की है-(१) अनुपरतकायिकी क्रिया और (२) दुष्प्रपुक्त कायिकी क्रिया। इस भव में व्रत-प्रत्याख्यान द्वारा आस्रव का निरोध नहीं करने से संसार के समस्त श्रारंभ-समारंभ के कामों की निरन्तर अव्रत की क्रिया लगती रहती है, वह अमुपरत कायिकी क्रिया कहलाती है। और जो साधु या श्रावक व्रत-प्रत्याख्यान करने के बाद भी अयतना से शरीर की प्रवृत्ति करते हैं, उन्हें लगने वाली क्रिया दुष्प्रयुक्त कायिकी क्रिया कहलाती है। - (२) आधिकरणिकी क्रिया-चाकू, छुरी, सुई, कैंची, तलवार, माला वी, धनुषवाण, बंदूक, तोप, कुदाली, फावड़ा, हल, चक्की, मूसल, आदि शस्त्रों का संग्रह या प्रयोग करने से तथा कठोर, दुखजनक वचनों को उच्चारण करने से आधिकरणिकी क्रिया लगती है। इसके भी दो भेद हैं—(१) संयोजनाधिकरणिकी-जो शस्त्र अधूरे हों उन्हें पूरा करना, जैसे तलवार में मूठ, 'चक्की में खीला आदि बैठाना, भौंटी धार को तीखी करना, जिससे शस्त्र उपयोग में आवे और प्रारंभ के काम चालू हो जाएँ। पुराने पड़े हुए झगड़े को फिर चेताने से वचन शस्त्र की क्रिया लगती है। (२) निर्वर्तनाधिकरखिकी-शस्त्र नये बनाकर इकट्ठा करना, या बेचना । इन शस्त्रों द्वारा जगत् में जितने-जितने पाप होते हैं, उनकी क्रिया बनाने वाले को भी लगती है। वचन रूपी शस्त्र से नवीन झगड़ा चेताने से भी निर्वर्तनाधिकरणिकी क्रिया लगती है। (३) प्रादेषिकी-ई-बेष के विचार से यह क्रिया लगती है। दूसरे
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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