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________________ १४ ] ॐ जैन-तत्त्वप्रकाश परमो धर्मः' कह कर फिर 'यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः' अर्थात् पशु यज्ञ के लिए ही बने हैं, ऐसे पूर्वापरविरोधी वचन भगवान नहीं बोलते । [१०] भगवान् एक प्रस्तुत प्रकरण को पूर्ण करके फिर दूसरे प्रकरण को प्रारम्भ करते हैं। एक बात पूरी हुई कि नहीं और बीच में दूसरी बात कह दी ; इस तरह गड़बड़ नहीं करते । उनका भाषण सिलसिलेवार होता है । [११] भगवान् ऐसी स्पष्टता (खुलासा ) करके उपदेश देते हैं कि श्रोताओं को किंचित् भी संशय उत्पन्न नहीं होता। [१२] बड़े से बड़े पण्डित भी भगवान के वचन में किंचित् मात्र भी दोष नहीं निकाल सकते। [१३] भगवान् के वचन सुनते ही श्रोताओं का मन एकाग्र हो जाता है। उनके वचन सब को मनोज्ञ लगते हैं ।* [१४] बड़ी विचक्षणता के साथ देश-काल के अनुसार बोलते हैं। [१५] सार्थक और सम्बद्ध वचनों से अर्थ का विस्तार तो करते हैं किन्तु व्यर्थ और ऊटपटाँग बातें कह कर समय पूरा नहीं करते। [१६] जीव आदि नौ पदार्थों के स्वरूप को प्रकाशित करने वाले सार-सार वचन बोलते हैं, निस्सार वचन नहीं बोलते । [१७] सांसारिक क्रिया की निस्सार बातें (कहना आवश्यक हो तो) संक्षेप में पूरी कर देते हैं अर्थात् ऐसे पदों को संक्षेप में समाप्त करके आगे के पद कहते हैं। [१८] धर्मकथा ऐसे खुलासे के साथ कहते हैं कि छोटा-सा बच्चा भी समझ जाय । . [१६] अपनी श्लाघा (प्रशंसा) और दूसरे की निन्दा नहीं करते। पाप की निन्दा करें परन्तु पापी की निन्दा नहीं करते। . * वेद भी कहते हैं-सत्यं ब्रूहि , प्रियं ब्रूहि अर्थात् सत्य बोलो किन्तु वह ऐसा हो कि श्रोता को प्रिय लगे।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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