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________________ * सूत्र धर्म [४१३., फल भोगना बड़ा कठिन होता है । अठारह प्रकार से पाप का बंध होता है। वह इस प्रकार है: १. प्राणातियात (हिंसा), २. मृषावाद (झूठ बोलना), ३. अदत्तादान (चोरी), ४. मैथुन (स्त्रीसंसर्ग), ५. परिग्रह (धन आदि का संग्रह और ममत्व), ६. क्रोध ७. मान ८. माया है. लोभ १.. राग ११. द्वेष १२. कलह १३. अभ्याख्यान-दूसरे पर मिथ्या दोषारोपण करना १४. पैशुन्यचुगली खाना १५. परपरिवाद-निन्दा १६. रति-अरति (भोगों में प्रीति और संयम में अप्रीति), १७. मायामृषाकपट सहित झूठ बोलना १८. मिथ्यादर्शन शल्य (असत्य मत की श्रद्धा होना)। इन अठारह दोषों का सेवन करने से पाप का बंथ होता है। इन अठारह पापों के अशुभ बंध का फल ८२ प्रकार से भोगना पड़ता है: १. मतिज्ञानावरणीय २. श्रुतज्ञानावरणीय ३. अवधिज्ञानावरणीय ४. मनःपर्ययज्ञानावरणीय ५. केवलज्ञानावरणीय ६. दानान्तराय (दान नहीं दे सकना) ७. लाभान्तराय (कमाई का लाभ नहीं प्राप्त कर सकना), ८. भोगान्तराय (खानपान आदि योग्य वस्तुओं की प्राप्ति में विघ्न होना), 8. उपभोगान्तराय (वस्त्र, आभूषण आदि बार-बार भोगने योग्य वस्तुओं की प्राप्ति में विघ्न होना), १०. वीर्यान्तराय (तप, संयम आदि में बाधा होना), ११. निद्रा (जो नींद सुख से आवे और सरलता से भङ्ग हो जाय), १२. निद्रानिद्रा (जो नींद कठिनाई से आवे और कठिनाई से भङ्ग हो), १३. प्रचला (बैठे-बैठे नींद आना), १४. प्रचलाप्रचला (चलते-चलते पाने वाली निद्रा), १५. स्त्यानगृद्धि (जिस निद्रा के समय दिन में सोचा हुमा काम रात को सोते-सोते ही कर लिया जाय और जिस निद्रा में बलदेव का आधा बल नींद लेने वाले में आ जाय), १६. चचुदर्शनावरणीय (अन्या होना), १७. अचक्षुदर्शनावरणीय (आँख के सिवाय अन्य इन्द्रियों की हीनता होना), १८. अवधिदर्शनावरणीय १६. केवलदर्शनावरणीय २०. असावा वेदनीय २१. नीच गोत्र २२. मिथ्यात्वमोहनीय २३. स्थावरपन २४. परमपन २५. अपर्याप्तपन २६. साधारणपन (एक शरीर में अनन्त जीव होना), .
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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