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________________ ॐ धर्म प्राप्ति [ ४०७ उनका स्कंध बनता है तो उसमें ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस, ८ स्पर्श और ५ संस्थान होते हैं। जिस पुद्गल के छोटे से छोटे भाग के दो विभागों की कल्पना भी न हो सके ऐसा सूक्ष्मतम अजीव परमाणु कहलाता है। दो परमाणुओं के मिलने से द्धिप्रदेशी स्कंथ, तीन परमाणु मिलने से त्रिप्रदेशी स्कंध, यावत् संख्यात परमाणु मिलने से संख्यातप्रदेशी स्कंध, असंख्यात परमाणु मिलने से असंख्यात प्रदेशी स्कंध और अनन्त परमाणुओं के मिलने से अनन्तप्रदेशी स्कंध कहलाता है । इन स्कंधों में भेद होने से न्यूनता होती है और संयोग होने से वृद्धि होती है। इस तरह पुद्गलों में भेद और संघात होते रहते हैं; मगर परमाणु का कभी नाश नहीं होता और किसी नवीन परमाणु की उत्पत्ति नहीं होती । तात्पर्य यह है कि जो परमाणु सत् है वह कभी असत् नहीं होता और असत् परमाणु बन कर सत् नहीं होता; भले ही कभी परमाणु, परमाणु रूप में रहे अथवा स्कंध रूप में परिणत हो जाय; मगर उसका सर्वथा विनाश नहीं होगा। अनादि काल से जितने परमाणु हैं, उतने ही अनन्त काल तक रहेंगे। अभव्य जीवों की राशि से अनन्त गुण अधिक और सिद्धराशि से अनन्तवें भाग कम परमाणुओं का जो स्कंध बनता है, वही आत्मा के ग्रहण करने योग्य होता है। ऐसे अनन्त पुद्गलस्कन्धों से कर्मवर्गणा बनती है और अनन्त कर्मवर्गणाओं से कर्मप्रकृति बनती है । इस प्रकार जितने पुद्गल श्रात्मसंयोगी हैं, वे 'मिश्रसा' पुद्गल कहलाते हैं; और आत्मा से सम्बद्ध होकर जो पुद्गल अलग हो गये हैं, वे 'प्रयोगसा' पुद्गल कहलाते हैं और जिन पुद्गलों का आत्मा के साथ संबंध नहीं हुआ है वे 'विस्रसा' पुद्गल कहलाते हैं । यह तीनों प्रकार के पुद्गल द्विप्रदेशी आदि स्कंध और परमाणु सम्पूर्ण लोक में अनन्तानन्त हैं। इस कारण पुद्गलों के भेद भी अनन्तानन्त हैं। परन्तु भव्यात्माओं को सरलता से बोध कराने के लिए अजीय के संक्षेप में १४ भेद कहे हैं और विस्तार से ५६० भेद कहे हैं। अजीव तत्त्व के १४ भेदः-१ धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, ३ आकाशास्तिकाय, इन तीनों के तीन-तीन मेद हैं। (१) स्कंध (धर्मास्तिकाय
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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