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________________ ३७८ ] ® जैन-तत्त्व प्रकाश हँडिया खरीदते समय उसे ठोक-बजाकर लेता है। कपड़े का पोत देखभाल कर फिर खरीदा जाता है। ऐसी नाशवान् वस्तुएँ भी परीक्षा कर के ली जाती हैं और लेने बाद बड़ी सावधानी से सँभाल कर रक्खी जाती हैं। फि भी वह सदा नहीं रहतीं । वे एकान्त सुख देने वाली भी नहीं होती हैं। कभी-कभी उनके निमित्त से सुख के बदले दुःख की प्राप्ति हो जाती है। तो धर्म को क्या परीक्षा किये बिना ही ग्रहण कर लेना चाहिए ? धर्म अनमोल वस्तु है और एकान्त सुखदायक है । उसका कभी विनाश नहीं होता । ऐसी स्थिति में उसकी परीक्षा अवश्य करनी चाहिए। जिस धर्म पर मनुष्य का अनन्त भविष्य निर्भर है, उसकी परीक्षा किये बिना ही उसे ग्रहण कर लेना चरम सीमा की मूर्खता है। फिर भी धर्म की परीक्षा करने वाले मनुष्य बहुत कम दिखाई देते हैं। किसी कवि ने कहा है: एक एक के पीछे चले, रस्ता न कोइ बूझता, अंधे फँसे सबघोर में, कहाँ तक पुकारे सूझता । बड़ा ऊँट आगे हुआ, पीछे हुई कतार । सब ही डूबे बापड़े, बड़े ऊँट के लार ॥ संसार में इस प्रकार की अंधाधुंधी चल रही है। अनादि काल से यह भेड़-चाल चली आती है। कुछ लोग कहते हैं-हमारे बाप-दादा जिस धर्म का पालन करते आये हैं, उस धर्म का परित्याग किस प्रकार किया जाय ? उनसे पूछना चाहिए--तुम्हारे बाप-दादा तो गरीब थे, फिर तुम धनवान होने का प्रयत्न क्यों कर रहे हो ? उस गरीबी को ही अपने गले का हार क्यों नहीं बनाते ? तुम्हारे पास जो धन है उसे फैंक क्यों नहीं देते ? तुम्हारे पिता या दादा अंधे, लँगड़े, काने या बहरे थे तो तुम भी वैसे ही क्यों नहीं बनते १ ऐसा कहा जाय तो उन्हें अच्छा नहीं लगेगा। वे ऐसा करने को तैयार नहीं होंगे। तब धर्म के विषय में ही बाप-दादा को क्यों बीच में लाया जाता है ? अगर कोई उत्तम धर्म को स्वीकार करने लगे तो क्या पुरखा मना करने पाएँगे ? या उनका कोई अहित हो जायगा ? सच तो यह है कि श्रोतामों
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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