SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 387
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ साधु ॐ (३०) मृग-जैसे हिरन नित्य नये स्थानों में विचरता है और शंका की जगह नहीं ठहरता, उसी प्रकार साधु उपविहारी होता है और शंका या दोष की जगह तनिक भी नहीं ठहरता । ___ (३१) काष्ठ-जैसे काष्ठ काटने वाले और पूजने वाले पर विषम भाव नहीं करता, उसी प्रकार साधु शत्रु और मित्र को समान समझता है । (३२) स्फटिकरत्न-जैसे स्फटिक मणि भीतर और बाहर से एक-सी निर्मल होती है, उसी प्रकार साधु भीतर-बाहर एक-सी वृत्ति वाला होता है और लेश मात्र भी कपटक्रिया नहीं करता। मुनि को इन पूर्वोक्त अनेक उपमाओं के अतिरिक्त और भी अनेक उपमाएँ दी जाती हैं । जैसे—पारस मणि, चिन्तामणि, कामकुंभ, कल्पवृक्ष, चित्रवेलि आदि । इन सब उपमाओं का सादृश्य यह है कि जैसे पारसमणि चिन्तामणि आदि से मनुष्य के सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं, उसी प्रकार मुनि भव्य जीवों को ज्ञान आदि उत्तम गुण प्रदान करके उनके सभी मनोरथों को सिद्ध कर देते हैं । जैसे बिना छेद का जहाज स्वयं भी तरता है और दूसरों को भी तारता है, उसी प्रकार साधु अखंडित चारित्र वाला होकर स्वयं भवसागर से तिरता है और भव्य जीवों को भी तारता है। जैसे फल वाला वृक्ष मारने वाले को फल देता है, उसी प्रकार साधु अपकार करने वाले पर उपकार की वर्षा करता है। ऐसी-ऐसी अनेक उपमाएँ साधु को दी जाती हैं। ऐसी अनेक शुभ उपमाओं वाले, आत्मार्थी, रूक्षवृत्ति (उदासीन भाव वाले या निष्काम वृत्ति वाले), महापंडित, धर्मपंडित, महामहिमामंडित, शूर, वीर, धीर, शम दम यम नियम, उपशम वाले, अनेक प्रकार के तप करने वाले, अनेक आसनों को सिद्ध करने वाले, संसार से विमुख होकर मुक्ति-मार्ग की ओर ही दृष्टि रखने वाले, प्राणी मात्र के हितैषी, अनेक उत्तम गुणों के धारक मुनि महाराज को मेरी त्रिकरण त्रियोग से त्रिकाल वन्दना हो! णमोकार मन्त्र नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं । नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं ॥
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy