SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ३३७ अपमान करे तो भी वह गृहस्थ से नहीं कहता । (६) जैसे पृथ्वी अन्य संयोगों से उत्पन्न होने वाले कीचड़ का नाश करती है, उसी प्रकार साधु राग-द्वेष क्लेश रूपी कीचड़ का अन्त कर देता है । (७) जैसे पृथ्वी समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्वों का आधार है, उसी प्रकार साधु भी आचार्य, उपाध्याय, शिष्य श्रावक आदि का आधार है । * साघु (१०) कमल - साधु कमल के फूल के समान होता है । (१) जैसे कमल का फूल कीचड़ से उत्पन्न हुआ, पानी के संयोग से बढ़ा, फिर भी पानी से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार साधु, गृहस्थ के घर जनमा, गृहस्थी में भोग भोग कर बड़ा हुआ, फिर भी वह कामभोगों से लिप्त नहीं होताकिन्तु न्यारा ही रहता है । (२) कमल का फूल अपनी सुगन्ध और शीतलता से पथिकों को सुख उपजाता है, उसी प्रकार साधु उपदेश देकर भव्य जीवों को सुख उपजाता है । (३) जैसे पुण्डरीक कमल का सौरभ चारों ओर फैलता है, उसी प्रकार साधु के शील, सत्य, तप, ज्ञान, दर्शन आदि गुणों की सुगन्ध चहुँ ओर फैलती है । (४) जैसे चन्द्रविकासी (कुमुद) और सूर्य - विकासी कमल क्रमशः चन्द्रमा और सूर्य के दर्शन से खिल उठते हैं, उसी प्रकार गुणी जनों के सम्पर्क से महामुनियों के हृदय - कमल खिल उठते हैं। (५) जैसे कमल सदा प्रफुल्लित रहता है, उसी प्रकार साधु सदा प्रसन्न रहता है । (६) जैसे कमल सदा सूर्य और चन्द्र के सन्मुख रहता है, उसी प्रकार साधु सदा तीर्थकर भगवान् की आज्ञा के सन्मुख रहता है । अर्थात् आज्ञानुसार ही व्यवहार करता है । (७) जैसे पुण्डरीक कमल उज्ज्वल और धवल होता है, उसी प्रकार साधु का हृदय धर्मध्यान और शुक्लध्यान से उज्ज्वल बना रहता है। 1 (११) रवि - साधु सूर्य के समान होता है। जैसे सूर्य अपने तेज से अंधकार का नाश करके जगत् के समस्त पदार्थों को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार साधु जीव, अजीव आदि नौ पदार्थों का वास्तविक स्वरूप भव्य जीवों के लिए प्रकाशित करता है । (२) जैसे सूर्य के उदय से कमलों का वन प्रफुल्लित होता है, उसी प्रकार साधु के श्रागमन से भव्य जीवों के मन प्रफुल्लित होते हैं । (३) जैसे सूर्य रात्रि के चार पहर में एकत्र हुए अंधकार
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy