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________________ * साधु * (६) तरुगण-(१) जैसे वृक्ष गर्मी-सर्दी आदि के दुःख सहन करके मनुष्यों, पशु-पक्षियों आदि को शीतल छाया प्रदान करते हैं, उसी प्रकार साधु भी अनेक परीषहों और उपसर्गों को सहन करके जीवों को उपदेश देकर आश्रयभूत और सुखदाता बनता है। (२) जैसे वृक्षों की सेवा करने से फल की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार साधु की सेवा करने से दस गुणों की प्राप्ति होती है । (३) जैसे वृक्ष पथिकों को तथा लूटेरों को आश्रयदाता है उसी प्रकार साधु भी चारों गतियों के जीवों को आश्रयदाता है । (४) जैसे वृक्ष कुल्हाड़े से काटने पर भी क्रोध नहीं करते, उसी प्रकार साधु उपसर्ग देने वाले और निन्दा करने वाले पर भी क्रोध नहीं करता । (५) वृक्षों को कोई कुंकुम, केसर आदि लगाकर पूजे तो वृक्ष खुशी का अनुभव नहीं करते, उसी प्रकार साधु सत्कार-सन्मान मिलने से प्रसन्न नहीं होता। (६) जैसे वृक्ष अपने फल, फूल और पत्ते दूसरों को देकर उसका बदला लेने की इच्छा नहीं करते, उसी प्रकार साधु ज्ञान आदि गुण देकर या उपदेश देकर किसी भी प्रकार का बदला नहीं चाहता। (७) जैसे वृक्ष सर्दी-गर्मी, पवन आदि से भले सूख जाएँ, मगर अपना स्थान नहीं त्यागते इसी प्रकार साधु प्राणान्तक कष्ट आ पड़ने पर भी अपने चारित्र आदि धर्म को नहीं छोड़ते, किन्तु अडिग बने रहते हैं। (७) भ्रमर-(१) जैसे भ्रमर फूलों का.रस ग्रहण करता है किन्तु फूलों को पीड़ा नहीं पहुँचाता, उसी प्रकार साधु आहार-पानी ग्रहण करते हुए भी दाता को जरा भी कष्ट नहीं देते । (२) जैसे भ्रमर फूल का मकरंद (रस) ग्रहण करता है किन्तु दूसरों को नहीं रोकता, उसी प्रकार साधु गृहस्थ के घर से आहार आदि लेता है किन्तु किसी को अन्तराय नहीं लगाता। (३) भ्रमर अनेक फूलों से अपना निर्वाह करता है, उसी प्रकारसाधु अनेक ग्रामों में परिभ्रमण करके, अनेक घरों में फिर कर, आहार आदि प्राप्त करके अपने शरीर का पोषण करता है । (४) जैसे भ्रमर बहुत-सा रस मिलने पर भी उस का संग्रह नहीं करता, उसी प्रकार साधु आहार आदि का संग्रह नहीं करता। (५) जैसे भ्रमर बिना बुलाये, अकस्मात ही फूलों के पास चला जाता है, उसी प्रकार साधु भी बिना निमंत्रण ही भिक्षा के लिए गृदस्थों के घर जाता है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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