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________________ * माधु® [३११ अर्थात मन को वश में करके धर्म मार्ग में लगाना (१६) वचःसमाधारणीया अर्थात् प्रयोजन होने पर परिमित और सत्य बाणी बोलना (१७) कायसमाधारणीया-शरीर की चपलता को रोकना। (१८) भावसत्य--- अन्तःकरण के भावों को निर्मल करके धर्मध्यान और शुक्लध्यान में जोड़ना (१६) करणसच्चेकरणसत्तरी के सत्तर बोलों से युक्त हो तथा साधु के लिए जिस-जिस समय जो-जो क्रियाएँ करने का विधान शास्त्र में किया गया है, उन्हें उसी समय करना। जैसे-पिछली रात का एक पहर शेष रहने पर जागृत होकर आकाश की तरफ दृष्टि दोड़ानी चाहिए कि किसी प्रकार असज्माय का कारण तो नहीं है ? अगर दिशाएँ निर्मल हो तो मज्झाय करे। फिर असज्झाय की दिशा (लाल दिशा) हो तम प्रतिक्रमण करें। सूर्योदय होने पर प्रतिलेखना कर अर्थात् वस्त्र आदि सब उपकरणों का अवलोकन करे । फिर इरियावहिया का काउस्सग्ग कर गुरु आदि बड़े साधु को वन्दना करके पूछे-में स्वध्याय करूँ ? यावृत्य करूँ ? अथवा औषध आदि लाना हो तो लाऊँ ? फिर गुरु आदि की जैसी आज्ञा हो वैसा करे । तत्पथात् एक पहर तक फिर स्वाध्याय क । श्रोताओं का योग्य समुदाय हो तो धर्मोपदेश (व्याख्यान) देवे । उसके पश्चात् ध्यान और शास्त्रों के अर्थ का चिन्तन करे । फिर भिक्षा का समय होने पर गोचरी के लिए जाय और शास्त्रीय विधि से शुद्ध आहार लाकर शरीर का भाड़ा चुकावे । (चौथे आरे में, एक घर में २८ पुरुष और ३२ स्त्रियाँ हों तो वह घर गिना जाता था और ६० मनुष्यों की रसोई तैयार करने में सहज ही दो पहर दिन बीत जाता था। हादसे रात्रिरित्रः मकान के मनु बनी बान आहार करते थे। ® पहिले बारे में तीन दिन बाद, दूसरे आरे में दो दिन बाद, तीसरे आरे में एक दिनान्तर, चौथे बारे में दिन में एक वक्त, पाँचवें आरे में दिन में दो वक्त और छठे आरे में वेमाया [अप्रमाण आहार की इच्छा होती है, इस कारण से चौथे आरे में साधु तीसरे पहर में १२ बजे बाद) भिक्षाथ जाते थे. तथा चौथे बारे में जिनके घर में ३२ स्त्री और २८ पुरुष, यो ६० मनुष्य होते, उनका घर गिना जाता था. ६० मनुष्य का भोजन बनाते भी दोपहर दिन सहज आने का संभव है इसलिए चौथे बारे में साधु दो प्रहर बाद एक ही वक्त भिक्षार्थ जाते थे, यह नियम सदैव के लिए नहीं है, सदैव के लिए तो 'काले कालं समायरे' अर्थात्-श्राम में धूम्र निकलता बन्द पड़ा देख, पनघट पर, पनिहारिने कम
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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