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________________ ३०० ] ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश ग्रास बनते हैं । इस प्रकार का कथन ऐसे प्रभावशाली ढंग से करना जिससे श्रोताओं के. चित्त में कुकर्मों के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाय । (२) तप, संयम, ब्रह्मचर्य, दान, क्षमा आदि कितनेक ऐसे कर्म हैं, जिनसे इसी लोक में मनुष्य इष्ट वस्तु को प्राप्त करने वाला, जगत्पूज्य, निराकुल और सुखी, बन सकता है । इस प्रकार का कथन करे जिससे कि श्रोता सद्गुणों के लिए उत्सुक हो । (३) प्रबल पुण्य के उदय से कदाचित् खोटे कामों का, अशुभ कर्मों का फल इस लोक में न मिला तो आगामी भव में-नरक-तिर्यञ्च श्रादि गतियों में अवश्य, भोगना पड़ेगा। इस प्रकार परलोक का भय बतला कर श्रोता को पाप से बचाना । (४) कदाचित् पहले के प्रबल पाप-कर्म के उदय से धर्मक्रिया का फल इस लोक में न मिला तो आगे के भव में अवश्य मिलेगा। करनी कभी निष्फल नहीं हो सकती। श्रोता के हृदय में यह भाव उँसा कर परलोक के सुखों के लिए उत्सुक बनाना । ___ इस प्रकार -चार कथाओं के सोलह प्रकारों द्वारा धर्मकथा कह कर धर्म का प्रभाव फैलाना धर्मकथाप्रभावना है। (३) किसी जगह जिनमत में स्थित धर्मात्मा पुरुष को, पाखण्डी लोग समझाकर धर्मभ्रष्ट करने का प्रयत्न कर रहे हों अथवा साधुओं की अवहेलनानिन्दा करके महिमा घटा रहे हों तो वहाँ पहुँच कर अपने शुद्ध आचार द्वारा, महाजनों की सहायता द्वारा या चर्चा द्वारा सत्य-असत्य का भेद समझाकर सत्य पक्ष की स्थापना करके और मिथ्यापक्ष का खंडन करके धर्म को दीप्त करना। (४).त्रिकालज्ञप्रभावना-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि शास्त्रों में कथित भूगोल का ज्ञाता बनना, खगोल.. निमित्त, ज्योतिष आदि विद्याओं में पारंगत होना, जिससे तीनों कालों सम्बंधी अच्छी-बुरी बातों का ज्ञान हो सके; लाभ-हानि, सुख-दुःख, जीवन-मरण आदि जानकर उपकारक और कल्याणकारी जगह में निस्वार्थ भाव से उनको प्रकाशित करना । किन्तु नेमित नहीं बतलाना । आपत्ति के समय सावधान रहना, जिससे जिनशासन, कीजभावना बढ़े।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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