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________________ [ २८६ रिपुत्रों के दमन करने का सबसे उम और मंदिग्ध उपाय तप ही है । करोड़ों मन साबुन लगाकर अथाह पानी से धोन पर भी कोयले में उज्ज्वलता नहीं आ सकती, किन्तु जब उस कोयले को आग में झोंक दिया जाता है तब उसकी कालिमा विलीन हो जाती है और वह राख के रूप में स्वच्छ हो जाता है । तो फिर भाव ताप (तपश्चर्या) आत्मा को पवित्र बनावे, यह कौन-से आर्य की बात है ? * उपाध्याय (१) जो लोग पुद्गलानन्दी रस के लोलुप हैं. उनसे तप नहीं होता । वे कहते हैं— आत्मा सो परमात्मा है । इसे क्षुधा तृषा आदि से पीड़ित करके आत्मद्रोही क्यों बना जाय ? तब तप-धर्मावलम्बी कहते हैं— बड़े बड़े महापुरुषों ने तप का मार्ग ग्रहण किया है। उन्होंने शरीर को तपस्या से सुखा कर काष्ठ के समान बना दिया । बड़े-बड़े ऋषियों ने और लियों ने तप किया। क्या उन सबको आनद्रोही कहा जा सकता है ? कदापि नहीं । शरीर का पोषण करने से केवल रक्त, मांस आदि सात धातुओं की वृद्धि होती है और वातुओं की वृद्धि होने से काम-क्रोध आदि विकारों की वृद्धि होती है। इससे आत्मा विषय-भोग आदि में फँस कर अनेक प्रकार के साध्य और असाध्य रोगों का तथा शोकों का पात्र बनता है । वह यहाँ भी दुःखी होता है और वहाँ (परलोक में) भी दुःखी होता है । उसे नरक - निगोद के दुःखों का पात्र बनना पड़ता है। यह शरीर के पोषण करने का फल है ! tara शरीर का पोषण करने के बदले आत्मा का पोषण करना चाहिए और आत्मा का पोषण धर्म से ही होता है। धर्म दोनों लोकों में परम सुखदाता है । (२) कितनेक लोग कहते हैं :- तुम दयाथर्मी चींटी को भी नहीं ताते हो तो तप करके अपने देह को क्यों कष्ट देते हो ? उन्हें समझना चाहिए कि जैसे रोग निवारणार्थ कडक औषध ग्रहण की जाती है, पथ्य का पालन किया जाता हैं, उस समय कुछ कष्ट तो होता है, फिर भी वह कष्ट नहीं माना जाता । उसी प्रकार कर्म-रोग के निवारण के लिए तप रूप
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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