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________________ २८२ ] * जैन-तत्त्व प्रकाश * १-कदाचित् जाति का मद प्राप्त हो तो सोचना चाहिए कि-अरे प्राणी ! अनन्त संसार में अनादिकाल से भ्रमण करते हुए तू ने अनन्त बार चाण्डाल आदि के भव धारण किये हैं। विष्ठा के टोकरे ढोये हैं। सब की घृणा का पात्र बना है । अब क्यों जाति का मद करता है ? २-कभी कुल-मद का भाव उत्पन्न हो जाय तो विचारना चाहिएहे आत्मन् ! तू ने अनेक बार वर्णसंकर कुल में जन्म धारण किया है ! अनाचार का सेवन करके, नीच कृत्य करके तू निन्दनीय बना है। कुल का मद करने का तुझे क्या अधिकार है ? ३-सबल होने पर बल का गर्व अन्तःकरण में उत्पन्न हो तो सोचना चाहिए-रे जीव ! तीर्थङ्कर और चक्रवर्ती आदि महान् पुरुषों के सामने तेरा यह तुच्छ बल किस गिनती में है ? ४--लाभ का अभिमान होने पर विचार करना चाहिए --- 'लब्धिधारी मुनिवरों के लाभ की तुलना में तेरा लाभ तिनके के बराबर है। नादान ! क्यों इस तुच्छ लाभ का अभिमान करता है ? ५-रूप का मद उत्पन्न होने पर समझना चाहिए कि-एक हजार पाठ परमोत्तम लक्षणों के धारक तीर्थङ्कर भगवान् के रूप के सामने इन्द्रों का तेज भी उसी प्रकार फीका दिखाई देता है, जैसे सूर्य के आगे दीपक लगता है। तो फिर तेरा रूप किस गिनती में है ? दुर्गन्ध से भरी हुई अशुचि देह का रूप नष्ट होते क्या देर लगती है ? ६–तपस्या का अभिमान जागृत होने पर सोचना चाहिए-इस भूतल पर बड़े-बड़े वीर तपस्त्री हो चुके हैं। महाप्रभु महावीर ने साढ़े बारह वर्ष और पन्द्रह दिन जितने लम्बे समय में सिर्फ ग्यारह महीने और उन्नीस दिन आहार किया था ! भगवान् ने छह मास का एक बार, पाँच दिन कम छह मास का एक बार, चार-चार महीने का नौ बार, तीन-तीन महीने का दो बार, दो-दो महीने का छह बार, अढ़ाई-अढाई महीने का दो बार, पन्द्रह-पन्द्रह दिन का महतर बार, १५ दिन का भद्रप्रतिमा व्रत, १६ दिन
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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