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________________ * उपाध्याय * [२६५ रूपी अग्नि के द्वारा भस्म करो और पवित्र बनो । तुम इस समय जो यज्ञ कर रहे हो वह तो आस्रव-यज्ञ है, पापबंध का कारण है । अतः प्रास्रव-यज्ञ का त्याग करके संवर रूप पवित्र दयामय यज्ञ का अनुष्ठान करो । यही यज्ञ आत्मा को तारने वाला और शरणरूप है ।' मुनि का यह उपदेश ब्राह्मणों को रुचिकर हुआ और वे हिंसा का त्याग करके धर्मात्मा बने । मुनि विहार करके अन्यत्र चले गये । उन्होंने कर्मों का नाश करके मुक्ति प्राप्त की। (६) निर्जरा भावना कर्मों का आंशिक रूप से क्षय होना निर्जरा है। निर्जरा का प्रधान कारण तप है। इस प्रकार निर्जरा के स्वरूप, कारण आदि का चिन्तन करना निर्जरा-भावना है। उसका चिन्तन इस प्रकार किया जाता है: हे जीव ! तूने संवर की करणी करके नये आने वाले पापों को रोक दिया; परन्तु पहले बँधे हुए कर्मों का क्षय करने वाली तो अकेली निर्जरा ही है । निर्जरा की कारण रूप तपस्या बारह प्रकार की है । बारह प्रकार की तपस्या को इस लोक और परलोक के किसी भी सुख या कीर्ति की कामना से रहित होकर केवल मुक्ति की इच्छा से करना चाहिए । ऐसा करने वाले का कल्याण अवश्य होता है । इस निर्जरा भावना का अर्जुन माली ने चिन्तन किया था। राजगृह नगर के निवासी अर्जुन नामक माली की स्त्री बंधुमती अत्यन्त रूपवती थी। बंधुमती का रूप-सौन्दर्य देखकर छह लम्पट पुरुष उस पर मोहित हो गये । एक बार जब अर्जुन माली उस बगीचे के यक्ष मुद्गरपाणि को नमस्कार कर रहा था, तब उन लम्पट पुरुषों ने आक्रमण करके अर्जुन माली को बाँध दिया और उसकी पत्नी बन्धुमती के साथ व्यभिचार सेवन किया। इस घोरतर अन्याय को देखकर यक्षदेवता ने अर्जुन माली के शरीर में प्रवेश किया और उन छहों लम्पट पुरुषों को तथा बंधुमती को मार
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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