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________________ * उपाध्याय * बारह भावना [ २४६ (१) अनित्य भावना संसार के पदार्थों की और जीवन की श्रनित्यता- श्रस्थिरता-क्षणभंगुरता का विचार करना श्रनित्य भावना है। जैसे- जगत् के महल, गढ़, बागबगीचा, कुत्रा, तालाब, दुकान, पशु-पक्षी, आभूषण आदि-आदि समस्त पदार्थ हैं । किन्तु हे जीव ! तू अज्ञान में फँसकर मूढ़ बन कर इन सब पदार्थों को शाश्वत-सदा काल रहने वाले माने बैठा है । दूसरे जड़ पदार्थों से सजाकर शरीर को और घर को सुन्दर समझ कर तू खुशी से फूला नहीं समाता । मगर पर-पदार्थों के द्वारा उत्पन्न की हुई शोभा सदा स्थिर नहीं रह सकती । जिन पौद्गलिक भोगोपभोग के साधनों का तू अभिमान करता और जिन्हें जुटाने में सदा संलग्न रहता है, वे किसी भी क्षण तुझे छोड़ देंगे अथवा तू स्वयं उन्हें छोड़ देने के लिए बाधित होगा । ऐसी अनित्य भावना भरत चक्रवर्ती ने भाई थी । श्री ऋषभदेवजी पुत्र और सुमंगला रानी के आत्मजश्रीभरत चक्री राजा थे। उनकी राजधानी विनीता नगरी थी । एक दिन महाराज भरतजी सोलहों शृंगार सजकर अपने काच के महल में, अपने शरीर का प्रतिविम्ब देख रहे थे। उसी समय हाथ की अंगुली में से अंगूठी निकलकर नीचे गिर पड़ी। अंगूठी के गिर जाने से अंगुली की शोभा बिगड़ गई। अंगुली खराब दिखाई देने लगी । इस घटना पर विचार करते-करते भरतजी को आश्चर्य हुआ । उन्होंने वास्तविकता को पहचानने के लिए शरीर का एक-एक आभूषण उतारना प्रारंभ किया और फिर वस्त्र भी हटा दिये । अन्त में वे सर्वथा नम होकर खड़े हो गये और अपने मन से कहने लगे-देख, तेरा असली स्वरूप तो यह है ! सिर्फ पर-पदार्थों के संयोग से वह शोभा थी । मगर वह पर-पदार्थ अर्थात् पुद्गल तो तेरे हैं नहीं । पुद्गल विनाशशील हैं और आत्मा - नाशी है। दोनों की प्रकृति निराली है । ऐसी स्थिति में तेरी उनके साथ प्रीति
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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