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________________ * आचार्य [२०७ कषाय करते हैं। (१०) कितनेक उपयोगरहित होकर कषाय करते हैं । (११) कितनेक कुछ अंशों में उपयोग सहित और कुछ अंशों में उपयोग रहित होकर कषाय करते हैं। (१२) कितनेक लोग श्रोष संज्ञा ( भोलेपन ) से कषाय करते हैं। इन बारह भेदों को चार कषाय से गुणित करने पर १२४४-४८ भेद हुए । इन ४८ भेदों को १६ के साथ जोड़ने से कषाय के ६४ भेद होते हैं। इन ६४ को २४ दंडक * और पच्चीसवाँ समुच्चय जीव, इस प्रकार २५ से गुणा करने पर ६४४२५=१६०० भंग चारों कषायों के होते हैं। जीव इन कषाय के पुद्गलों का (१) चय करता है-एकत्र करता है (२) उपचय करता है-जमाता है, (३) बन्ध करता है; (४) बंधे पुद्गलों को आत्म-प्रदेशों द्वारा वेदन करता है (५) ज्यों-ज्यों वेदन करता जाता है त्यों-त्यों उनकी उदीरणा होती जाती है । (६) कितनेक भव्य जीव पश्चात्ताप करके और कितनेक तपश्चर्या करके निर्जीर्ण करके क्षय कर देते हैं । इन छह के भूत, वर्तमान और भविष्य काल की अपेक्षा १८ भेद होते हैं । स्व और पर की अपेक्षा इनके ३६ भेद हो जाते है । इन ३६ भेदों को २४ दंडक और २५ वें समुच्चय जीव की अपेक्षा २५ गुना किया जाय तो ३६+२५-६०० भेद हो जाते हैं। इन्हें चार कषाय से चौगुना कर दिया जाय तो ३६०० भेद होते हैं। इनमें पूर्वोक्त १६०० भेद मिला देने से ५२०० भेद कुल होते हैं । चार कषायों के इतने भंग होते हैं । इतना जबर्दस्त परिवार इन कषायों का है। अतः कषाय को प्रबल वैरी समझना चाहिए। गाथा-कोहो पीई पणासेइ, माणो विणयनासणो । माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सबविणासणो ॥ -~-दशवैकालिक, अ. ८, ३८ । * २४ दंडक-७ नर्क का ? दंडक, १० जाति के भुवनपति देवों के १० दंडक, पांच स्थावरों के ५ दडक,३ विकलेन्द्रियों के ३ दंडक, यह १६ हुए। २० वाँ तिर्यच पंचेन्द्रिय का, २१ वाँ मनुष्य का, २२ वाँ वाणव्यंतर देवों का, २३ वा ज्योतिषी देवों का और २४ वा वैमानिक देवों का, इनका सविस्तार वर्णन दूसरे प्रकरण में हो गया है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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