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________________ २०४] ® जैन-तत्त्व प्रकाश (४) अन्दर अनाचार का सेवन करे और ऊपर से मलीन वस्त्र आदि धारण करके शुद्धाचारी होने का ढोंग करे, ऐसा पुरुष प्राचार का चोर है । (५) चोर होकर भी ऊपर से साहूकारी बतलाने वाला, ठग होकर भी भक्तिभाव प्रकट करने वाला भाव का चोर कहलाता है । __यह पाँचों प्रकार के चोर मर कर देवगति प्राप्त करें तो भी चाण्डाल के समान नीच जाति वाले मिथ्यादृष्टि, अस्वच्छ, घृणास्पद और निन्दा के पात्र किल्बिषी जाति के देव होते हैं। वहाँ से मर कर आगे बकरा आदि मूक (गूगे) होते हैं और फिर नरक-तिर्यञ्च आदि नीच-नीच जातियों में अनन्त काल तक परिभ्रमण करते रहते हैं। उन्हें बोधिबीज सम्यक्त्व की प्राप्ति बहुत दुर्लभ हो जाती है। मायाचार (दगाबाजी) का फल इतना भयानक है ! ऐसा जानकर आचार्य महाराज कदापि माया का सेवन नहीं करते हैं । वे भीतर और बाहर विशुद्ध, निर्मल तथा सदैव सरल स्वभावी होते हैं । लोभ-लोभ कषाय का स्थान रोम-रोम है। शास्त्र में कहा है'लोहो सव्वविणासणो' अर्थात् लोभ सभी सद्गुणों का नाश करने वाला है। इसके पास में फंसे हुए प्राणी क्षुधा, तृषा, शीत, ताप, मारकाट, अपमान आदि अनेक दुःखों को भोगते हैं । दूसरों की गुलामी करते हैं । गरीबों को अपने चंगुल में फंसाते हैं। कुटम्बीजनों को भी धोखा देते हैं। जाति से विरुद्ध और धर्म से प्रतिकूल कृत्य करते हैं । पंचेन्द्रिय प्राणियों की बात करने से भी नहीं चूकते हैं । ऐसे-ऐसे अनेक कुकर्म करके धनोपार्जन करतेकरते अन्त में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। फिर भी उन्हें कभी तृप्ति नहीं हो पाती । कपिल केवली ने कहा है: _ 'जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो विवड्ढई ।' अर्थात् ज्यों-ज्यों लाभ में वृद्धि हो जाती है त्यों-त्यों लोभ में भी वृद्धि होती जाती है, बल्कि लाभ से ही लोभ की वृद्धि होती है। इस प्रकार तृष्णा का गड़हा कभी भर. ही नहीं पाता ! लोग इस लोभ के वशीभूत होकर, घोर कष्ट से उपार्जन किये हुए द्रव्य का भी उपभोग नहीं करते। उसे यों ही छोड़
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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