________________
* श्राचार्य
[ ६६
(१) क्रोध - क्रोध का निवास कपाल में है । यह प्रकृति को क्रूर बना देता है। क्रोध के आवेश में आकर प्राणी अपने माता-पिता, भाई- भगिनी, पुत्र-पुत्री, स्वामी सेवक, पत्नी-पति, गुरु-शिष्य आदि आत्मीय जनों की घात करने में भी विलम्ब नहीं करता है। अधिक क्या, कदाचित् अत्यन्त कुपित हो जाय तो आत्मघात भी कर बैठता है । इस कारण क्रोध को चाण्डाल की उपमा दी गई है। श्री उत्तराध्ययनसूत्र के २३ वें अध्याय में श्रीकेशी स्वामी ने कहा है:
संपज्जालिया घोरा अग्गी चिट्ठइ गोयमा !
अर्थात् — हे गौतम ! जलती हुई और स्थित है। यह और कोई नहीं, क्रोध की ही भड़क उठती है तो क्षमा, दया, शील, सन्तोष, उत्तमोत्तम गुणों को जला कर भस्म कर देती है । कालिमा चढ़ा देती है ।
भयंकर अनि हृदय में अग्नि है । जब यह आग तप, संयम, ज्ञान आदि चेतना पर मिथ्यात्व की
क्रोधी व्यक्ति स्वयं भी जलता है और अनेकों दूसरों को भी जला देता है । क्रोधी, मदोन्मत्त (नशाबाज ) के समान बेभान होकर प्रिय वस्तु को भी तोड़फोड़ देता है और फिर पश्चात्ताप करता है । क्रोधी आदमी अंधे के समान होता है क्योंकि उसे भला-बुरा नहीं सूझता । क्रोधी कृतघ्न भी होता है, क्योंकि वह उपकारी के उपकार को क्षण भर में भूल जाता है ।
'कोहो पीईं पणासे' अर्थात् क्रोध प्रीति को नष्ट कर देता है । वास्तव में क्रोधी के साथ प्रीति का निर्वाह नहीं होता । क्रोधी जमी हुई और बनी हुई बात को क्षण भर में बिगाड़ देता है । क्रोध के फलस्वरूप जीव कुरूप, सत्रहीन, अपयश का भागी और अनन्त जन्म-मरण करने वाला बन जाता है । इसलिए क्रोध हलाहल विष के समान है। ऐसा जानकर आचार्य महाराज कदापि क्रोध से सन्तप्त नहीं होते हैं । वे सदैव शान्त-शीतल रहते हैं और दूसरों को भी शान्त - शीतल बनाते हैं ।
1
(२) मान—मान कषाय का निवासस्थान गर्दन है । मान से प्रकृति कठोर बनती है । शास्त्र में कहा है- 'माणो विजयनासो' अर्थात् मान से