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* जैन-तत्त्व प्रकाश ॐ
सुखं शय्या सूक्ष्मवस्त्रं, ताम्बूलं स्नानमञ्जन ।
दन्तकाष्ठं सुगन्धं च, ब्रह्मचर्यस्य दूषणम् ॥ अर्थात्-कोमल विछौने पर सोना, बारीक वस्त्र पहनना, पान खाना, स्नान करना, आँखों में अंजन लगाना, दातौन करना और सुगंधित पदार्थों का लेपन करना, यह ब्रह्मचर्य को दूषित करने वाली बातें हैं ।
और भी कहा है:विभूसावत्तियं भिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं ।
संसार-सायरे घोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे ॥ दश अ० ६
अर्थात्-जो साधु स्नान-शृंगार आदि से शरीर की विभूषा करता है, वह चिकने (कठिन) कर्मों का बंध करता है और संसार-सागर में ऐसा डूबता है कि पीछे निकलना कठिन हो जाता है।
इस प्रकार अनेक शास्त्रीय प्रमाणों से प्रतीत होता है कि ब्रह्मचारी को स्नान, श्रृंगार आदि नहीं करना चाहिए । जो स्नान करेगा वह शरीर की सुन्दरता का अवलोकन करने के लिए दर्पण देखेगा, बालों में तेल लगाएगा, बालों को साफ करने के लिए कंघा रक्खेगा और शरीर को दुर्वल देखकर पुष्ट बनाने के लिए सरस भोजन का लोलुपी बनेगा, फिर वस्खादि का श्रृंगार सजेगा। इस प्रकार इच्छा और आसक्ति बढ़ती जाएगी
और वह ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट हो जाएगा। इस प्रकार अनेक दोषों की परम्परा से उत्पत्ति जानकर ब्रह्मचारी को कदापि स्नान नहीं करना चाहिए ।
जो लोग स्नान से शुद्धि होने की बात कहते हैं उन्हें जानना चाहिए कि जिसमें कई एक मुर्दे गाढ़े जा चुके हैं ऐसी मिट्टी के बने घाट में, ऐसे पानी से, जिसमें कि अनेकानेक जलचर जीवों की उत्पत्ति और मृत्यु सदैव होती रहती है, और जिसमें दुनिया भर का मल-मूत्र मिला होता है, स्नान करने से आत्मा की शुद्धि किस प्रकार हो सकती है ? रही शरीर की शुद्धि, सो शरीर रक्त, मांस आदि का पिण्ड है। उसे हजार बार धोने पर भी वह शुद्ध नहीं हो सकता । इसके अतिरिक्त पानी में अनेक त्रस और असंख्य