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________________ [ PE पराक्रम फोड़ते हैं और दूसरों को बोध देते हैं कि - 'हे भव्यो ! इस संसारी जीवने, अनादिकाल से भवभ्रमण करते हुए, पराधीनतापूर्वक क्षुधा, तृषा शीत, ताप, मारकाट आदि की अनेक वेदनाएँ अनेकों बार सहन की हैं, किन्तु उससे इस जीव का कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ। सकाम निर्जरा कुछ भी नहीं हुई, उल्टा नया कर्म-बंध हुआ, जिससे अधिकाधिक दुःख की प्राप्ति हुई । भव्य जीवो ! पराधीन होकर, विवश होकर, लाचारी से जो कष्ट सहन किये हैं, उनका अनन्तवाँ भाग भी अगर स्ववश होकर, स्वेच्छा से धर्मार्थ कष्ट-सहन करो अर्थात् प्राप्त काम भोगों का, सुख और ऐश्वर्य का त्याग करके, संयम का आचरण करके, ग्रामानुग्राम विहार करके, आर्य और लोगों की तरफ से होने वाले अनुकूल और प्रतिकूल परीषहों और उपसर्गों को समभाव से सहन करो, तथा कषाय, मद, मात्सर्य, अहंता, ममता आदि आन्तरिक शत्रुओं का दमन करो, निरन्तर धर्माराम में रमण करो तो थोड़े ही समय में आत्मा का परम कल्याण हो जाय, भवभ्रमण का अन्त हो जाय और समस्त प्रकार की अधियाँ, व्याधियाँ और उपाधियाँ नष्ट हो जाएँ | सब दुःखों का आत्यन्तिक क्षय हो जाय और मुक्ति का सीम, अनिर्वचनीय, अनन्त और अगाध आनन्द प्राप्त हो सके । इसलिए चेतो, जल्दी चेतो। तुम्हें इस समय जो अवसर मिला है वही सब से उत्तम है । भविष्य की प्रतीक्षा मत करो । भविष्य तुम्हारे हाथ में नहीं है । वर्त्तमान का सदुपयोग कर लो। इसे वृथा मत गँवाओ । अनमोल क्षण चिन्तामणि से भी अधिक उपयोगी हैं। लो। इस प्रकार का बोध देकर आचार्य, भव्य जीवों अग्रसर करते हैं, मोह-निद्रा में मस्त मनुष्यों को सावधान और जागृत करते हैं। तथा चारों संघों को यथायोग्य धर्म-सहाय देकर और दूसरों से दिलाकर धर्म और संघ का अभ्युदय करते हैं । धर्म-कार्य में स्वयं प्रवृत्त होते हैं और दूसरों को प्रवृत्त करते हैं। यही वीर्याचार कहलाता है । 1 * आचार्य मनुष्य जन्म के यह इनसे पूरा लाभ उठा को धर्म के पथ पर पाँच समितियों और तीन गुप्तियों का कथन चारित्राचार का निरूपण करते समय किया जा चुका है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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