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________________ * श्राचार्य * [१८३ रत्नत्रय एवं क्षायिक भावों की आराधना के द्वारा अपनी आत्मा को कर्म आदि पर पदार्थों को अलग समझते हैं, अलिप्त रहते हैं । यह 'विवेक' नामक लक्षण है। (२) माता-पिता आदि के पूर्व संयोग से, श्वसुर-सासू आदि के पश्चात् संयोग से और कषाय आदि आभ्यन्तर संयोग से शुक्लध्यानी आत्मा को अलग अनुभव करते हैं, यह 'व्युत्सर्ग' नामक लक्षण है। (३) शुक्लध्यानी, स्त्री आदि के हाव-भाव रूप अनुकूल उपसर्गों से तथा देवदानव आदि द्वारा किये जाने वाले प्रतिकूल उपसर्गों से चलित नहीं होते । इन्द्र की अप्सरा और विकराल दैत्य भी शुक्लध्यानी को विचलित नहीं कर सकते । यह अव्यथ नामक तीसरा लक्षण है । (४) शुक्लध्यानी मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श में कभी राग-द्वेष नहीं करते, उन्हें सूक्ष्म और गहन विषयों में तथा देवादि कृत माया में किसी भी प्रकार का सस्मोह नहीं होता। यह 'असम्मोह' नामक चौथा लक्षण है। शुक्लध्यानी के चार अवलम्बन हैं-(१) किसी भी कहे, सुने और देखे हुए पदार्थ में से सार तत्त्व ग्रहण करके असार को त्याग दे, कदापि किंचित् मात्र भी क्रोध रूप परिणति न होने दे, यह 'क्षान्ति' नामक अवलम्बन है । (२) किसी भी वस्तु पर लेश मात्र भी ममत्व न करना 'मुक्ति' (निर्लोभता) रूप अवलम्बन है । (३) भीतर-बाहर से सरल होना 'आर्जव' अवलम्बन है । और (४) द्रव्य तथा भाव से कोमल एवं विनम्र रहना 'मादेव' अवलम्बन है । शुक्लध्यानी की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं-(१) हिंसा आदि पाँचों आस्रवों को दुःख का मूल जानकर जो त्याग देता है वही सुखी होता है । जो हिंसा आदि का सेवन करता है वह जन्म-जन्मान्तर में दुःख का भागी होता है, ऐसा विचार करना अपायानुप्रेक्षा है । (२) जगत् के पौद्गलिक पदार्थ और उनके संयोग से होने वाले भाव सभी अशुभ हैं । उनका त्याग करने वाला ही सुखी होता है । इस प्रकार विचार करना अशुभानुप्रेक्षा है । (३) यह जीव अनादि काल से जगत् में भ्रमण कर रहा है। इसने अनन्त पुद्गलपरावर्तन किये हैं। किन्तु जो भवभ्रमण का अन्त करता है वही सुखी है । ऐसा विचार काना अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा है । (४) सन्ध्याकाल की लालिमा, इन्द्र
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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