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________________ * आचार्य [१६६ करना कषायप्रतिसंलीनता तप है । [३] असत्य और मिश्र वचन का त्याग ___* जो सच्चा विचार करे वह सत्यमन, जो झूठा विचार करे सो असत्यमन, दोनों का विचार करे सो मिश्रमन और जो व्यवहारसत्य का (जैसे-गांव पाया, दीपक जलता है, रास्ता सीधा जाता है इत्यादि का) विचार करे सो व्यवहारमन । सत्य बोलना सत्यभाषा, असत्य बोलना असत्यभाषा, कुछ सत्य और कुछ असत्य बोलना मिश्रभाषा और पूर्वोक्त ब्यवहारसत्य बोलना व्यवहारभाषा है। चारों प्रकार के वचनों के ४२ भेद कहे गये हैं। उनमें से सत्यभाषा के दस भेद हैं । जैसे-(१) जनपदसत्य-विभिन्न देशों में बोली जाने वाली भाषा, जैसे कहीं पानी, कहीं नील, कही नीर जल को कहते हैं। जिस देश में जिस शब्द का प्रयोग होता है, उस शब्द का प्रयोग करना जनपदसत्य कहलाता है। (२)समन्तसत्य-एक वस्तु के गुण पलटने से अनेक नाम पलटना, जैसे-साधु, श्रमण, मुनि आदि। (३) स्थापनासत्य-पैया, रुपया, मोहर, टांक, पाव, सेर श्रादि लोक में जिसकी स्थापना की गई है, उसे उसी नाम से कहना स्थापनासत्य है। (४) नामसत्य-नाम के अनुसार गुण न होने पर भी जिसका जो नाम रक्खा गया है उसे उसी नाम से कहना । जैसे किसी निस्संतान को भी 'कुलवर्धन' नाम से कहना, दरिद्रा को 'लक्ष्मी' नाम से पुकारना आदि। (५) रूपसत्य-गुण न होने पर भी वेष के कारण उसे उसी नाम से कहना, जैसे साधु के गुण न होने पर भी किसी ने साधु वेष बना लिया है, इस कारण उसे साधु कहना । (6) प्रतीत्यसत्य-सापेक्ष कथन । जैसे छोटे की अपेक्षा बड़ा और श्रीमन्त की अपेक्षा गरीब कहना । (७) व्यवहारसत्य-सत्य न होने पर भी लोक में जो सत्य माना जाता है, ऐसा वचन बोलना, जैसे-जलता है तेल मगर कहा जाता है कि दीपक जलता है, चलता है मनुष्य मगर गांव आया कहा जाता है। ऐसा कहना व्यवहारसत्य है। (८) भावसत्य-बहुतायत की अपेक्षा सामान्य रूप से कथन करना, जसे बगुला को सफेद कहनो, तोते को हरा कहना, कौए को काला कहना। यद्यपि इनमें सभी रङ्ग पाये जाते हैं किन्तु जो रङ्ग विशेष दृष्टिगोचर होता है उससे व्यवहार करना भावसत्य है। (8) योगसत्य-किसी के लिए उसके कार्य के अनुसार शब्द प्रयोग करना, जैसे-लिखने वाले को लेखक या लेहिया कहना, सोने के आभूषण बनाने वाले को स्वर्णकार कहना, इसी प्रकार लोहार, चर्मकार (चमार) आदि कहना योगसत्य है। (१०) उपमासत्य-नगर को देवलोक के समान, घृत को कपूर के समान कहना। यह दस प्रकार के सत्य हैं । अर्थात् यह दस प्रकार की भाषा सत्य मानी जाती है। असत्यभाषा भी दस प्रकार की है:-क्रोध असत्य-क्रोध के वश होकर बोलना, जैसे ऋद्ध होकर पिता अपने पुत्र से कहता है-जा, मुंह मत दिखाना, तु मेरा बेटा नहीं ! (२) मान-असत्य-मान के वश होकर झूठ बोलना (३) माया-असत्य-माया के अधीन होकर दगा-कपट के वचन बोलना । (४) लोभ-असत्य-लालच में पड़कर, व्यापार आदि के निमित्त असत्य बोलना। (४) राग-असत्याग के फन्दे में फंसकर स्त्री आदि से झूठ बोलना। (E) द्वेष-असत्य-द्वेष के वश होकर किसी को झूठा कलंक लगा देना । (७) भय-असत्य
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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