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________________ १६२] ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश ® प्रतत्तप बगल में दिये हुए कोष्ठक के अनुसार पहले एक, फिर दो, फिर तीन, फिर चार, फिर दो, फिर तीन, फिर चार, फिर एक इत्यादि अङ्कों के क्रम के अनुसार तप करना प्रतर-अनशन तप कहलाता है। __इसी प्रकार Exc=६४ कोष्ठक में आने वाले अङ्कों के अनुसार तप करना घनतप कहलाता है। इस प्रकार ६४४४४०६६ कोष्ठकों में आने वाले अङ्कों के अनुसार तप करना वर्गतप है। इसी तरह ४०६६४४०६६=१६७७७२१६ कोष्ठकों में आने वाले अङ्कों के अनुसार तप करना वर्गावर्ग तप कहलाता है और कनकावली, रत्नावली, मुक्तावली, एकावली, बृहसिंहक्रीडित, लघुसिंहक्रीडित, गुणरत्नसंवत्सर, वज्रमध्यप्रतिमा, यवमध्यप्रतिमा, सर्वतोभद्रप्रतिमा, महाभद्रप्रतिमा, भद्रप्रतिमा. आयंबिलवर्धमान इत्यादि तप प्रकीर्णक तप कहलाते हैं। (इन तपों का रूप कोष्ठकों में पृथक् दिया गया है ।) यह इत्वरिक तप के छह भेद हैं। मारणान्तिक उपसर्ग आने पर, असाध्य रोग हो जाने पर या बहुत अधिक जराजीर्ण अवस्था हो जाने पर जब आयु का अन्त सन्निकट आया प्रतीत होता हो तब जीवन पर्यन्त के लिए अनशन करना 'श्रावकहिय सप' कहलाता है। आवकहिय तप के दो भेद हैं:-(१) भक्तप्रत्याख्यान और (२) पादपोपगमन। सिर्फ चारों प्रकार के आहार का जीवन पर्यन्त त्याग करना भक्तप्रत्याख्यान-तप कहलाता है तथा चारों प्रकार के आहार के त्याग के * पहले एक श्राबिल और एक उपवास, फिर दो बिल और एक उपवास, इस प्रकार बिल की क्रम से वृद्धि करता जाय और बीच-बीच में एक-एक उपवास करता जाय। इस तरह १०० आंबिल तक करे । यह ओबिल वर्धमानतप कहलाता है। इसमें १४ वर्ष लगते हैं।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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